अब वे दिन गये जब राजा वेश बदलकर प्रजा का हाल जानने के लिए भीड़ में निकला करते थे । शुरुआती दिनों में अरविंद केजरीवाल ने वादा किया था कि वे राजनीति में आने के बाद भी आम आदमी बने रहेंगे । उनका वादा आज तक पूरा नहीं हो सका ।
भीड़ का चरित्र जानने के लिए भीड़ का हिस्सा होना आवश्यक है । नब्बे के दशक में मेरे पुर्तगाली मित्र डेनीसन बेर्विक ने गंगासागर से गोमुख की पदयात्रा प्रारम्भ करने से पहले बंगला सीखी, बंगालियों की तरह लुंगी-कुर्ता पहनने और भारतीय भोजन करने का अभ्यास किया । यह सब इसलिए कि वह भारत को क़रीब से देख और समझ सके । वह बात अलग है कि इस पदयात्रा में अपनी चमड़ी के रंग के कारण वह भीड़ का हिस्सा नहीं बन सका ...और शायद इसीलिए वह भारत को क़रीब से जान भी नहीं सका । “अ वाक अलॉन्ग द गंगेज़” के अनंतर हर भारतीय ने उससे अंग्रेज़ी में ही बात की जबकि वह फ़्रेंच मूल का पुर्तगाली बंदा है । ख़ैर ! मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि जब तक आप विशिष्ट रहते हैं तभी तक आम आदमी आपके साथ आपके पद और सामाजिक रुतबे के अनुसार व्यवहार करता है । जैसे ही आप अपने पदीय-सामाजिक-आर्थिक आभामण्डल से बाहर निकलते हैं वैसे ही आप आम आदमी के शोषक चरित्र का शिकार होना शुरू हो जाते हैं । यदि आप अन्याय सहने के अभ्यस्त नहीं हैं तो भीड़ का चरित्र आपको विद्रोही बना देगा ।
आज यह सब लिखने का कारण उमर ख़ालिद के महिमा मण्डन में लिखा योगेद्र यादव का वह हालिया लेख है जो ”दि प्रिंट” में प्रकाशित हुआ है और जिसमें उन्होंने उमर ख़ालिद को एक महान नेता के रूप में महिमा मण्डित किया है ...एक ऐसा प्रखर युवा नेता जो अपने ज़मात की भीड़ की बेहतरी के लिए आवाज़ उठाने के कारण ही आज सलाखों के पीछे भेज दिया गया है ।
अपने बचपन से लेकर आज तक भीड़ का जो चरित्र मैंने देखा है उसके आधार पर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आम आदमी की प्रवृत्ति हिंसक और शोषक हुआ करती है । यह एक वैश्विक स्थिति है । सामंथा को भी आप भूले नहीं होंगे । हाँ ! स्पेन की वही आर्टीफ़िशियल इंटेलीजेंसी ड्राइवेन लव डॉल रोबोटिक सामंथा जिसे सितम्बर 2017 में अपने प्रथम प्रदर्शन में ही स्पेन की भीड़ में नोच-नोच कर क्षतिग्रस्त कर दिया था । स्पेन की रोबोटिक कम्पनी सिंथिया अमेटस ने सामंथा की रचना पुरुषों के अकेलेपन को दूर करने के लिए की थी । वह दर्शन और विज्ञान जैसे विषयों पर आपसे चर्चा कर सकती थी और आपके साथ आपकी शरीक-ए-हयात की तरह ही व्यवहार भी कर सकती थी । यह भीड़ का चरित्र था जिसने सामंथा को भी नहीं छोड़ा ।
योगेंद्र यादव के लेख पर मेरी टिप्पणी अगले लेख में ...
कुछ लोग अकेले भी एक भीड़ हो लेते हैं।
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