रविवार, 27 सितंबर 2020

सीबीडी ऑयल की वैधता पर उठ रहे हैं सवाल...

बेतवा एक्सप्रेस और मेरा उपन्यास...

बड़े भइया (आदरणीय अशोक चतुर्वेदी जी) ने एक उपन्यास लिखने के लिए कहा था । लिखना शुरू किया, किंतु कभी बिगड़ा मूड तो कभी जंगल-झाड़ियों और ऊँची-नीची पहाड़ियों के अवरोध बाधा उत्पन्न करते रहे । कुल मिलाकर उपन्यास लेखन की गति बेतवा एक्सप्रेस की तरह हो गयी है जो कानपुर सेण्टृल स्टेशन से 15-20 किलोमीटर पहले से ही किसी गब्बर बैल की तरह जगह-जगह अड़ कर खड़ी हो जाती है । फ़िलहाल इतना बता दूँ कि लिखे जा रहे उपन्यास की कथायात्रा बिहार के गाँवों, कस्बों और ग़रीब-गुरबा लोगों की त्रासदियों से होता हुआ हज़रत निज़ामुद्दीन और फिर वहाँ से वापस बिहार के बीच बिखरी घटनाओं पर आधारत है । बेतवा एक्सप्रेस अभी भीमसेन स्टेशन पर खड़ी है, देखते हैं कानपुर कब पहुँचती है।

 

सीबीडी ऑयल की वैधता पर उठ रहे हैं सवाल...

मायानगरी के गंधर्वलोक में मारीज़ुआना के बाद आजकल सीबीडी ऑयल की चर्चा होने लगी है । टीवी पर होने वाली बहस कम काँव-काँव में सीबीडी ऑयल के निर्माण और बिक्री की वैधता पर सवाल उठने लगे हैं । सीबीडी ऑयल याने कैनाबिडियॉल और टीएचसी याने टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल ये दो तेल हैं जो भाँग की पत्तियों से निकाले जाते हैं । सदियों से भाँग के पौधे के विभिन्न भागों का प्रयोग दुनिया के कई देशों में टेक्सटाइल और चिकित्सा उद्देश्यों से किया जाता रहा है । एपीलेप्सी, एंज़ाइटी, हीमोरॉयड्स और कैंसर जैसी बीमारियों में इसका उपयोग किया जाता रहा है । उत्तराखण्ड में भाँग के बीजों की स्वादिष्ट चटनी और बिच्छू घास की भाजी वहाँ की पारम्परिक खाद्य वस्तुओं में से है जिनके बिना उत्तराखण्ड की पहचान अधूरी सी लगती है । ख़ैर मैं यह बता दूँ कि ड्रग एण्ड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 के अनुसार सीबीडी ऑयल का निर्माण एवं चिकित्सकीय उपयोग अपराध की श्रेणी में नहीं है । यूँ भी इस तेल का कोई नशीला प्रभाव नहीं होता है ।

और हाँ! यह भी बता दूँ कि खसखस के बीज जो कि अफीम के फल का एक हिस्सा हैं, नशीले नहीं होते ।  

2 टिप्‍पणियां:

  1. घास फ़ूस पर भी उठेंगे प्रश्न जल्दी ही।

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    1. बचा ही नहीं घास-फूस । हर्बीसाइड्स डाल-डाल कर खेतों से घास-फूस की हत्या कर दी गयी है, बछड़े बैल बनने से पहले ही बीफ़ बना दिये जाने लगे हैं और ट्रैक्टर धुआँ उगलकर वातावरण को शुद्ध करने में लगे हुये हैं । गाँव के लोग भी अब दूध ख़रीदने लगे हैं ...चाय के लिए । दूध पीने का रिवाज़ और ज़रूरत ख़त्म सी होती जा रही है । मट्ठा अब गाँव में तलाश करना पड़ता है । और "उमड़-घुमड़ दूध बिलोय जट्टणी को छोरा रोय । रोता है तो रोने दो हमको दूध बिलोने दो" बाला बालगीत अब बेमानी हो गया है ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.