बुधवार, 23 सितंबर 2020

बुद्ध की तलाश...

 

बस्तर के लोगों को इस बात का पूरा यक़ीन है कि जिस दिन स्वतंत्र भारत की पुलिस ने राजा के महल में घुस कर निहत्थे राजा को गोलियों से भून डाला था उसी दिन से बस्तर की देवी रूठ गयी है ।

सरकारें आती हैं, सरकारें जाती हैं, क्रांति हो रही है, गोलियाँ चल रही हैं, …पढ़े-लिखे लोग इसे ही वार फ़ॉर पीसकहते हैं । पूरब में पश्चिम को रोप दिया गया है और बुद्ध के देश में बुद्ध की तलाश अब कोई नहीं करता! 

मोतीहारी वाले मिसिर जी कहते हैं –“ए हो मरदे! हमरा के बुड़बक मत बनावा, बंदुकिया से सांती निकलेला के धुआँ निकलेला!

पिछले कई दशकों से शांत बस्तर को दहशत का पर्याय बनाने की कोशिशें होती रही हैं । कई दशक पहले बंगाल का नक्सलवाड़ी गाँव अशांत हो गया था, अशांति के विरुद्ध क्रांति हुयी जो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गयी । क्रांति आज भी हो रही है, नक्सलवाड़ी गाँव आज भी अशांत है । पूरा देश अशांत है और माओवादी क्रांति कभी-कभी चुपके से आकर कहीं भी अपने क्रूर हस्ताक्षर करके चली जाती है ।

बस्तर के जंगलों में अब बारूद की गंध आने लगी है । कभी-कभी एक चीख के साथ गरम-गरम लहू बहता है, कुछ देर के लिए आयी दहशत पूरे जंगल में ख़ामोशी परोस देती है । अगली सुबह ठहरी हुयी हवायें चलने लगती हैं, शंकिनी-डंकिनी नदियों का पानी यथावत बहता रहता है और ज़िंदगी एक बार फिर ठुमकने लगती है ।   

दशकों पहले शांत बस्तर के जंगलों में बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे कुछ लोग आये, उन्होंने ढपली बजाकर अन्याय और न्याय के गीत गाते हुये एक दिन भोले बस्तरियों के हाथों में बारूद थमा दी । अन्याय जो नहीं था, अब होने लगा है । न्याय, जिसके सपने दिखाये गये थे अब सपनों में भी दिखायी नहीं देता । पता नहीं कब नक्सलवाड़ी गाँव की क्रांति नक्सलवाद से होती हुयी माओवादी रक्तक्रांति में रूपांतरित हो गयी और सत्ता को पता भी नहीं चला ।

इन कुछ दशकों में बारूद की गंध जंगल में छाने लगी और बस्तर की मैना आख़िर एक दिन रूठ ही गयी । जंगल के बहुत से जीव-जंतु अब दिखायी नहीं देते किंतु इंद्रावती और महानदी की जलधारायें आज भी उनकी प्रतीक्षा करती हैं, शालवनों का द्वीप आज भी गमकता है, मधुमक्खियाँ आज भी बड़े-बड़े छत्तों में शहद जमा करती हैं, कोसा ककून बनाने वाली तितलियाँ आज भी जहाँ-तहाँ मँड़राती हैं, बुधिया आज भी पत्थर की सिल पर लाल चीटों की चटनी पीसती है, तीरथगढ़ के जलप्रपात में आज भी चेलक और मोटियारिन को स्नान करते हुये देखा जा सकता है, …सियासत न हो और मैना वापस लौट आये तो बस्तर आज भी ख़ूबसूरत है ...उतना ही जितना कि कुछ दशक पहले था ।

जंगल के लोग आपस में एक-दूसरे से पूछने लगे हैं – “शाल वन के द्वीप में यह कौन घुस आया है, क्यों घुस आया है? हमें हमारे हाल पर क्यों नहीं छोड़ दिया जाता”?

बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग जंगल में उग रहे प्रश्नों की झाड़ियों से बच कर निकल जाने के अभ्यस्त हो गये हैं । शालवनों का द्वीप अब प्रश्नवनों का द्वीप हो गया है । जंगल को मालुम है कि दिल्ली की सर्द रातों में उसके प्रश्नों की झाड़ियों को सुलगाकर वहाँ के महलों को गर्म रखा जाता है । जंगल को यह भी मालुम है कि दिल्ली के महलों में आग तापते लोग बैंकों के निजीकरण की और घोटुल के सरकारीकरण की महत्वाकांक्षी योजनायें बनाने में व्यस्त हैं, उन्हें जंगल से बात करने का कभी समय नहीं मिला करता ।

इधर, दिल्ली से लगभग सत्रह सौ किलोमीटर दूर नारायणपुर के मेले में आज भी रिलो-रिलो के गीत रात के अँधियारे में चेलक को गुदगुदाते हैं । बारूद का धुआँ न हो तो बस्तर के घोटुल अँगड़ाई लेकर फिर से उठ खड़े होने के लिए तैयार हैं । आपने कभी तनिक भी ध्यान दिया होता तो आपको पता चल जाता कि फागुन में आज भी जंगल के पलाश श्रृंगार करके आपकी राह देखते रहते हैं और सल्फी के झाड़ पर लटकते विशाल झुमके पहले की तरह आज भी आपको आमंत्रित करते हैं । आप एक बार बस्तर आइये तो सही!  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.