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एक अदृश्य वायरस पिछले नौ महीनों से दुनिया भर
के वैज्ञानिकों को धूल चटा रहा है । हम एक अदृश्य शक्ति से जीत नहीं पा रहे हैं ।
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दावानल से हर साल होने वाली बेशुमार क्षति और
वन्यजीवों की मृत्यु के आगे हर कोई लाचार है । हम अग्नि देव के प्रकोप से मुक्त
नहीं हो पा रहे हैं ।
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वायु प्रदूषण से हर साल होने वाली बीमारियों
और असमय मौतों का आज तक कोई समाधान नहीं निकल सका है । हमने सुपरसोनिक प्लेन तो
बना लिया लेकिन हम पवन देव से जीत नहीं पाये ।
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जल प्रदूषण सभ्य दुनिया के लिए एक ऐसी समस्या
है जिसके लिए बेशुमार पैसा खर्च करने के बाद भी हमें शुद्ध पेय जल नहीं मिल पा रहा
है और वाटरबॉर्न बीमारियों से जूझने के लिए बाध्य हैं । हम वरुण देव के आगे बहुत
बौने हैं ।
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मोहनजोदड़ो और हडप्पा संस्कृति में जलनिकासी की
जो सुव्यवस्था थी वैसी व्यवस्था कर पाने में हम अभी तक असफल रहे हैं । पिछले कुछ
सालों से वारिश में मुम्बई का हाल हमारी उपलब्धियों का मज़ाक उड़ाने लगी है ।
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कैंसर और एड्स जैसी कई बीमारियाँ हमारी स्थायी
शत्रु बन चुकी हैं और हम उनके आगे लाचार हैं ।
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विनाशकारी घातक आयुधों की खोज के अलावा हमने
मानव सभ्यता में चार चाँद लगाने के लिए और कौन से उल्लेखनीय कार्य किए हैं, हमें
खोजने से भी नहीं मिल सके ।
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ईश्वर के दिए शरीर को हमने बिकने के लिए मंडी
में पहुँचा दिया, अंतरात्मा की हत्या कर दी, स्वाभिमान से मुँह मोड़
लिया, विश्वविद्यालयों के बाहर गर्भनिरोधक साधन उपलब्ध करवा
दिए ...और हल्ला कर दिया कि हम सुसंस्कृत हो गए हैं ।
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हम चाँद और मंगल पर बस्तियाँ बसाने के स्वप्न
देख रहे हैं पर हम यह तय कर पाने में असफल रहे हैं कि हमें दूध, घी,
दाल, सब्जी, चावल और
रोटी का सेवन करना चाहिए या अफीम, हशीश, कोकीन, गाँजा और चरस का ।
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हम सब सुसंस्कृत, आधुनिक,
प्रगतिशील और न जाने क्या-क्या होने का दावा करते हैं किंतु दुनिया
को बम से तबाह करने के लिए हर पल तैयार रहते हैं ।
- हमें कभी तो बैठकर सोचना होगा कि इतनी लम्बी यात्रा में हमने आज तक क्या पाया और क्या खोया है ।
खुद सोचें तब ना। जमाना किसी की सोच की सोचने में लगा रहेगा तो कहां कुछ सोचेगा?
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