समाचार
है कि बस्तर में एन.एम.डी.सी. के कर्मचारियों ने निजीकरण का सशक्त विरोध प्रारम्भ
कर दिया है ।
सरकार
एनएमडीसी में अपनी भागीदारी सेठों को बेचना चाहती है । रेलवे में जनभागीदारी के
नाम पर सेठों की भागीदारी शुरू हो चुकी है । ज़ल्दी ही बहुत सी सरकारी कम्पनियाँ अब
सेठों के हाथों में होंगी । धन जुटाने के लिए सरकारी उद्योगों को बेचे जाने का
सिलसिला शुरू हो गया है (दोबारा धन की ज़रूरत होगी तो क्या बेचियेगा?) ।
लोग आशंकित हैं कि रक्षा सामग्रियों और आयुध उत्पादन से सम्बंधित सरकारी उद्योग भी
यदि सेठों के हवाले कर दिए गए तो आगे चलकर ये सेठ इतने शक्तिशाली हो सकते हैं कि
सरकारें इनके सामने बौनी हो जायेंगी ...इतनी बौनी कि फिर सरकारों को सन्यास लेना
पड़ जायेगा और शक्तिशाली सेठ अपना राजतिलक ख़ुद ही कर लेंगे । ईस्ट इण्डिया कम्पनी
की तरह इन महाशक्तिशाली सेठों के पास अपनी सेना होगी और अपने उद्योगों को चलाने के
लिए अपने क़ानून होंगे । जिसे जनभागीदारी का नाम दिया गया है वह वस्तुतः
सेठभागीदारी है जिनके आगे आमजन हमेशा पानी भरता रहा है ।
प्रश्न
यह उठता है कि निजीकरण की आवश्यकता हुयी ही क्यों ? मैं इसमें एक प्रश्न
और जोड़ना चाहता हूँ और वह यह कि आमजनता की दृष्टि में सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल, सरकारी एविएशन, सरकारी व्यवस्था… यहाँ तक कि सरकारी भाषण की भी
विश्वसनीयता निजी संस्थाओं की तुलना में इतनी कम क्यों है ? हर
व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे सरकारी स्कूल में न पढ़ें और उसके घर के किसी बीमार
व्यक्ति का इलाज़ सरकारी अस्पताल में न हो । एयर इण्डिया के स्थान पर लोग विस्तारा
और इण्डिगो की सेवाओं को प्राथमिकता देना चाहते हैं । सरकारी बैंकों की सेवायें लोगों
को संतुष्ट कर पाने में उतनी सफल नहीं हो पातीं जितनी कि निजी बैंकों की सेवायें ।
शेयर मार्केट में सरकारी कम्पनियों के शेयर किसी को आकर्षित नहीं कर पाते जबकि
निजी कम्पनियों के आई.पी.ओ. आते ही ख़रीददारों की इतनी भीड़ टूट पड़ती है कि वे कई गुना
अधिक सब्स्क्राइब्ड हो जाया करते हैं । तब लोग सरकारी नौकरी, सरकारी बस सेवा और रेलवे की सेवाओं के पीछे ही इतने दीवाने क्यों हैं ?
हम
सरकारी स्कूल में अपने बच्चे नहीं पढ़ाना चाहते किंतु नौकरी सरकारी स्कूल में ही
करना चाहते हैं । बहुत से सरकारी उद्योग घाटे में हैं किंतु हम नौकरी उन्हीं
उद्योगों में करना चाहते हैं । इस विरोधाभासिक चरित्र के लिए किसे उत्तरदायी
ठहराया जाय ?
...और
मेरा दावा है कि जो सरकारी इण्डस्ट्रीज़ घाटे में दम तोड़ रही हैं, निजीकरण
के बाद वे घाटे से मुनाफ़े में आ जायेंगी और उनमें बहार आ जायेगी । एक समय था जब
सरकार ने बैंकों का सरकारीकरण करना शुरू किया ...क्या अब यह समय सरकारी संस्थाओं
के निजीकरण का आ गया है ! सरकारी संस्थायें दम क्यों तोड़ती हैं और निजी संस्थायें
दिनदूनी रात चौगुनी उन्नति क्यों करती हैं ...ऐसा कोई नहीं जिसके पास इन प्रश्नों
के उत्तर नहीं हैं ।
...वहीं
हम यह भी स्वीकार करते हैं कि छत्तीसगढ़ में राज्य परिवहन को अपदस्थ कर आयी निजी
परिवहन सेवाओं ने जिस तरह किराये की दरों और सेवाओं में स्वेच्छाचारिता की कीमत पर
सरकार को भरपूर रिवेन्यू देना शुरू किया है उससे जनभागीदारी की विश्वसनीयता और
इरादों पर उठते रहे सवालों पर छाये मौन ने आम आदमी को दीन-हीन प्रजा बना दिया है ।
क्या हम एक राजतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं ?
बढ़ नहीं रहे हैं पहुंच गये हैं।
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