सोमवार, 5 अप्रैल 2021

कोरोना संग आयुर्वेद की जंग...

         कल के लेख –“कोरोना वैक्सीन पर छाये संदेह के बादलके संदर्भ में पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी अशोक चतुर्वेदी जी की ओर से कुछ जिज्ञासायें प्रकट की गयी हैं । आज के लेख में हम उन्हीं जिज्ञासाओं के समाधान का यथासम्भव प्रयास करेंगे ।  

          आयुर्वेद में वर्णित रोगप्रतिरोध क्षमता और आधुनिक टीके से उत्पन्न रोगप्रतिरोध क्षमता में क्या समानतायें और असमानतायें हैं ? दोनों रोगप्रतिरोध क्षमताओं के कार्य करने की पद्धति कैसी है ? क्या आयुर्वेदिक औषधियाँ रोगप्रतिरोध क्षमता उत्पन्न करने में सक्षम हैं ? टीका किन मामलों में उपयोगी है और किन में अनिवार्य ? जब कोरोना वायरस का टीका खोज लिया गया तो उसकी दवाई ख़ोजने में क्या बाधा है ?

चिकित्सा विज्ञानियों के प्रति विनम्र एवं आदर भाव के साथ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि रोगप्रतिरोध क्षमता और इम्यूनिटी को समानार्थी स्वीकार करने में मुझे सदा से आपत्ति रही है । माइक्रॉब्स के विरुद्ध डायरेक्ट एक्शन के कारण आधुनिक इम्यूनिटी रोगप्रतिरोधी नहीं बल्कि माइक्रॉब प्रतिरोधी है । यह एक्शन यदि सफल नहीं हो पाता तो न्यूनाधिक अंश में रोग उत्पन्न होता ही है । इसी तरह वैज्ञानिक जगत में प्रचलित कोविड” (कोरोना वायरस डिसीज़) शब्द भी भ्रामक है, सही शब्द है कोविस” (कोरोना वायरस सिण्ड्रोम)

जब हम आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में आयुर्वेद की बात करते हैं तो हमें तीन स्तरों पर तकनीकी शब्दों को समझने-समझाने के लिये कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । पहले स्तर पर है आयुर्वेदोक्त तकनीकी शब्दावली, दूसरे स्तर पर है आधुनिक तकनीकी शब्दावली और तीसरे स्तर पर है आम-बोलचाल की अ-तकनीकी शब्दावली । वैदिक युग के तकनीकी शब्दों के लिये समानार्थी आधुनिक पश्चिमी भाषाओं में उपयुक्त शब्दों के अभाव के कारण किये गये त्रुटिपूर्ण अनुवादों से यह कठिनायी उत्पन्न हुयी है ।

आयुर्वेद के परिप्रेक्ष्य में रोगप्रतिरोध क्षमता को तीन स्तरों पर समझा जा सकता है –1- At the level of constitution of body humours which are in different combinations. We all have this natural immunity from our birth till last breath, 2- At the level of body response; our cells acquire this immunity along the exposure to different microbes in different times. This slow but natural process of immunity goes on whole life and depends on various factors including food habits and mental states of the individual, 3- At the level of tissue response; as in direct inoculation either by vaccination or by direct exposure to microbes. At broad level major population develop herd immunity in this way. This level is again divided into two, viz. induced method, as in vaccination, and natural method as along the recovery after exposure.

आयुर्वेदोक्त रोगप्रतिरोध क्षमता और आधुनिक वैक्सीन से उत्पन्न इम्यूनिटी में मौलिक अंतर समझना आवश्यक है । आयुर्वेदोक्त रोगप्रतिरोध क्षमता किसी भी माइक्रॉब के कारण होने वाली विकृतियों के विरुद्ध क्रियाशील होती है गोया सैन्य और पुलिस बल की कार्यवाही जबकि वैक्सीन से उत्पन्न होने वाली इम्यूनिटी किसी एक विशिष्ट माइक्रॉब के प्रति क्रियाशील होती है गोया किसी वी.आई.पी. की सुरक्षा में लगे कमाण्डोज़ की कार्यवाही ।

आयुर्वेदोक्त रोगप्रतिरोध क्षमता वह शक्ति है जो किसी माइक्रॉब को हमारे शरीर में प्रवेश करने, मल्टीप्लाय होने और किसी पैथोलॉज़िकल प्रक्रिया के प्रारम्भ होने की प्रतिकूल स्थितियों का निर्माण करती है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह वह शक्ति है जो कोशिका के इन्टर्नल और एक्स्टर्नल इनवायर्नमेंट को माइक्रॉब्स की आवश्यकताओं के विरुद्ध मोडीफ़ाय करने का प्रयास करती है जिससे रोग उत्पन्न ही नहीं हो सके । वैक्सीनेशन से उत्पन्न इम्यूनिटी वह क्षमता है जो शरीर में प्रवेश कर चुके माइक्रॉब्स को पहचान कर उस पर आक्रमण करने के लिये शरीर को तैयार करती है । इस दृष्टि से देखा जाय तो आयुर्वेदोक्त रोगप्रतिरोध क्षमता की कार्यप्रणाली डिफ़ेंसिव होती है जबकि वैक्सीन इंड्यूस्ड इम्यूनिटी की कार्यप्रणाली एग्रेसिव । 

रोगप्रतिरोध क्षमता बढ़ाने के लिये आयुर्वेदिक औषधियों में गो-घृत, स्वर्णभस्म, मधु, यशद (Zinc), अश्वगंधा, आँवला, श्वेत मूसली, पिप्पली, हल्दी, लौंग, कालीमिर्च, सोंठ, दालचीनी, चक्रफूल (Star anise) आदि का सदियों से उपयोग किया जाता रहा है । आदर्श स्थिति में इन औषधियों के सेवन करने से कोई साइड इफ़ेक्ट्स नहीं होते ।

टीका किन मामलों में उपयोगी है और किन में अनिवार्य ? जब किसी संक्रामक व्याधि की प्रकृति एक्यूट और परिणाम प्राणघातक हों तो ऐसे मामलों में वैक्सीन उपयोगी हो सकती है । जब किसी संक्रामक व्याधि की प्रकृति क्रॉनिक और परिणाम स्थायी डिस-एबिलिटी करने वाले हों तो ऐसे मामलों में वैक्सीन अनिवार्य की जा सकती है ।

जब कोरोना वायरस का टीका खोज लिया गया तो उसकी दवाई ख़ोजने में क्या बाधा है ? वायरस रूप बदलने में दक्ष और तीव्र आक्रामक होता है जिसके कारण बैक्टीरिया की अपेक्षा वायरस से लड़ना हमारे लिये कहीं अधिक मुश्किल होता है । क्लीनिकल ट्रायल को छोड़ दिया जाय तो किसी भी पैथोज़ेनिक माइक्रॉब की दवाई की अपेक्षा उसके वैक्सीन की खोज में समय कम लगता है ।

वैक्सीन की निर्माण सामग्री के लिये प्रायः माइक्रॉब के ही अवयवों या मृत अथवा एटेनुएटेड माइक्रॉब का उपयोग किया जाता है जो सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं जबकि दवाई की खोज के लिये वांछित परिणाम प्राप्त होने तक नये-नये औषधि द्रव्यों पर वर्षों शोध करने की आवश्यकता होती है । औषधि निर्माण सामग्री की, अपेक्षाकृत सहज एवं प्रचुर उपलब्धता के कारण एण्टीबॉयटिक दवाइयों का निर्माण एण्टीवायरल दवाइयों के निर्माण की अपेक्षा कहीं अधिक सरल है । वैक्सीन निर्माण के लिये तम्बाख़ू के पत्तों में पायी जाने वाली एक प्रोटीन का भी उपयोग किया जाता है किंतु इस प्रक्रिया में अपेक्षाकृत बहुत अधिक समय की आवश्यकता होती है, यही कारण है कि भारत सहित कई देशों में तम्बाखू की प्रोटीन से भी एण्टीकोरोना वैक्सीन निर्माण की दिशा में शोध कार्य अभी भी चल ही रहे हैं । 

4 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.