मंगलवार, 29 सितंबर 2020

सरकारीकरण से निजीकरण की ओर...

समाचार है कि बस्तर में एन.एम.डी.सी. के कर्मचारियों ने निजीकरण का सशक्त विरोध प्रारम्भ कर दिया है ।

सरकार एनएमडीसी में अपनी भागीदारी सेठों को बेचना चाहती है । रेलवे में जनभागीदारी के नाम पर सेठों की भागीदारी शुरू हो चुकी है । ज़ल्दी ही बहुत सी सरकारी कम्पनियाँ अब सेठों के हाथों में होंगी । धन जुटाने के लिए सरकारी उद्योगों को बेचे जाने का सिलसिला शुरू हो गया है (दोबारा धन की ज़रूरत होगी तो क्या बेचियेगा?) । लोग आशंकित हैं कि रक्षा सामग्रियों और आयुध उत्पादन से सम्बंधित सरकारी उद्योग भी यदि सेठों के हवाले कर दिए गए तो आगे चलकर ये सेठ इतने शक्तिशाली हो सकते हैं कि सरकारें इनके सामने बौनी हो जायेंगी ...इतनी बौनी कि फिर सरकारों को सन्यास लेना पड़ जायेगा और शक्तिशाली सेठ अपना राजतिलक ख़ुद ही कर लेंगे । ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तरह इन महाशक्तिशाली सेठों के पास अपनी सेना होगी और अपने उद्योगों को चलाने के लिए अपने क़ानून होंगे । जिसे जनभागीदारी का नाम दिया गया है वह वस्तुतः सेठभागीदारी है जिनके आगे आमजन हमेशा पानी भरता रहा है ।

प्रश्न यह उठता है कि निजीकरण की आवश्यकता हुयी ही क्यों ? मैं इसमें एक प्रश्न और जोड़ना चाहता हूँ और वह यह कि आमजनता की दृष्टि में सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल, सरकारी एविएशन, सरकारी व्यवस्थायहाँ तक कि सरकारी भाषण की भी विश्वसनीयता निजी संस्थाओं की तुलना में इतनी कम क्यों है ? हर व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे सरकारी स्कूल में न पढ़ें और उसके घर के किसी बीमार व्यक्ति का इलाज़ सरकारी अस्पताल में न हो । एयर इण्डिया के स्थान पर लोग विस्तारा और इण्डिगो की सेवाओं को प्राथमिकता देना चाहते हैं । सरकारी बैंकों की सेवायें लोगों को संतुष्ट कर पाने में उतनी सफल नहीं हो पातीं जितनी कि निजी बैंकों की सेवायें । शेयर मार्केट में सरकारी कम्पनियों के शेयर किसी को आकर्षित नहीं कर पाते जबकि निजी कम्पनियों के आई.पी.ओ. आते ही ख़रीददारों की इतनी भीड़ टूट पड़ती है कि वे कई गुना अधिक सब्स्क्राइब्ड हो जाया करते हैं । तब लोग सरकारी नौकरी, सरकारी बस सेवा और रेलवे की सेवाओं के पीछे ही इतने दीवाने क्यों हैं ?

हम सरकारी स्कूल में अपने बच्चे नहीं पढ़ाना चाहते किंतु नौकरी सरकारी स्कूल में ही करना चाहते हैं । बहुत से सरकारी उद्योग घाटे में हैं किंतु हम नौकरी उन्हीं उद्योगों में करना चाहते हैं । इस विरोधाभासिक चरित्र के लिए किसे उत्तरदायी ठहराया जाय ?

...और मेरा दावा है कि जो सरकारी इण्डस्ट्रीज़ घाटे में दम तोड़ रही हैं, निजीकरण के बाद वे घाटे से मुनाफ़े में आ जायेंगी और उनमें बहार आ जायेगी । एक समय था जब सरकार ने बैंकों का सरकारीकरण करना शुरू किया ...क्या अब यह समय सरकारी संस्थाओं के निजीकरण का आ गया है ! सरकारी संस्थायें दम क्यों तोड़ती हैं और निजी संस्थायें दिनदूनी रात चौगुनी उन्नति क्यों करती हैं ...ऐसा कोई नहीं जिसके पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं ।

...वहीं हम यह भी स्वीकार करते हैं कि छत्तीसगढ़ में राज्य परिवहन को अपदस्थ कर आयी निजी परिवहन सेवाओं ने जिस तरह किराये की दरों और सेवाओं में स्वेच्छाचारिता की कीमत पर सरकार को भरपूर रिवेन्यू देना शुरू किया है उससे जनभागीदारी की विश्वसनीयता और इरादों पर उठते रहे सवालों पर छाये मौन ने आम आदमी को दीन-हीन प्रजा बना दिया है । क्या हम एक राजतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं ?


रविवार, 27 सितंबर 2020

सीबीडी ऑयल की वैधता पर उठ रहे हैं सवाल...

बेतवा एक्सप्रेस और मेरा उपन्यास...

बड़े भइया (आदरणीय अशोक चतुर्वेदी जी) ने एक उपन्यास लिखने के लिए कहा था । लिखना शुरू किया, किंतु कभी बिगड़ा मूड तो कभी जंगल-झाड़ियों और ऊँची-नीची पहाड़ियों के अवरोध बाधा उत्पन्न करते रहे । कुल मिलाकर उपन्यास लेखन की गति बेतवा एक्सप्रेस की तरह हो गयी है जो कानपुर सेण्टृल स्टेशन से 15-20 किलोमीटर पहले से ही किसी गब्बर बैल की तरह जगह-जगह अड़ कर खड़ी हो जाती है । फ़िलहाल इतना बता दूँ कि लिखे जा रहे उपन्यास की कथायात्रा बिहार के गाँवों, कस्बों और ग़रीब-गुरबा लोगों की त्रासदियों से होता हुआ हज़रत निज़ामुद्दीन और फिर वहाँ से वापस बिहार के बीच बिखरी घटनाओं पर आधारत है । बेतवा एक्सप्रेस अभी भीमसेन स्टेशन पर खड़ी है, देखते हैं कानपुर कब पहुँचती है।

 

सीबीडी ऑयल की वैधता पर उठ रहे हैं सवाल...

मायानगरी के गंधर्वलोक में मारीज़ुआना के बाद आजकल सीबीडी ऑयल की चर्चा होने लगी है । टीवी पर होने वाली बहस कम काँव-काँव में सीबीडी ऑयल के निर्माण और बिक्री की वैधता पर सवाल उठने लगे हैं । सीबीडी ऑयल याने कैनाबिडियॉल और टीएचसी याने टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल ये दो तेल हैं जो भाँग की पत्तियों से निकाले जाते हैं । सदियों से भाँग के पौधे के विभिन्न भागों का प्रयोग दुनिया के कई देशों में टेक्सटाइल और चिकित्सा उद्देश्यों से किया जाता रहा है । एपीलेप्सी, एंज़ाइटी, हीमोरॉयड्स और कैंसर जैसी बीमारियों में इसका उपयोग किया जाता रहा है । उत्तराखण्ड में भाँग के बीजों की स्वादिष्ट चटनी और बिच्छू घास की भाजी वहाँ की पारम्परिक खाद्य वस्तुओं में से है जिनके बिना उत्तराखण्ड की पहचान अधूरी सी लगती है । ख़ैर मैं यह बता दूँ कि ड्रग एण्ड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 के अनुसार सीबीडी ऑयल का निर्माण एवं चिकित्सकीय उपयोग अपराध की श्रेणी में नहीं है । यूँ भी इस तेल का कोई नशीला प्रभाव नहीं होता है ।

और हाँ! यह भी बता दूँ कि खसखस के बीज जो कि अफीम के फल का एक हिस्सा हैं, नशीले नहीं होते ।  

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

यात्रा समीक्षा...

-      एक अदृश्य वायरस पिछले नौ महीनों से दुनिया भर के वैज्ञानिकों को धूल चटा रहा है । हम एक अदृश्य शक्ति से जीत नहीं पा रहे हैं ।

-      दावानल से हर साल होने वाली बेशुमार क्षति और वन्यजीवों की मृत्यु के आगे हर कोई लाचार है । हम अग्नि देव के प्रकोप से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं ।

-      वायु प्रदूषण से हर साल होने वाली बीमारियों और असमय मौतों का आज तक कोई समाधान नहीं निकल सका है । हमने सुपरसोनिक प्लेन तो बना लिया लेकिन हम पवन देव से जीत नहीं पाये ।

-      जल प्रदूषण सभ्य दुनिया के लिए एक ऐसी समस्या है जिसके लिए बेशुमार पैसा खर्च करने के बाद भी हमें शुद्ध पेय जल नहीं मिल पा रहा है और वाटरबॉर्न बीमारियों से जूझने के लिए बाध्य हैं । हम वरुण देव के आगे बहुत बौने हैं ।

-      मोहनजोदड़ो और हडप्पा संस्कृति में जलनिकासी की जो सुव्यवस्था थी वैसी व्यवस्था कर पाने में हम अभी तक असफल रहे हैं । पिछले कुछ सालों से वारिश में मुम्बई का हाल हमारी उपलब्धियों का मज़ाक उड़ाने लगी है ।

-      कैंसर और एड्स जैसी कई बीमारियाँ हमारी स्थायी शत्रु बन चुकी हैं और हम उनके आगे लाचार हैं ।

-      विनाशकारी घातक आयुधों की खोज के अलावा हमने मानव सभ्यता में चार चाँद लगाने के लिए और कौन से उल्लेखनीय कार्य किए हैं, हमें खोजने से भी नहीं मिल सके ।

-      ईश्वर के दिए शरीर को हमने बिकने के लिए मंडी में पहुँचा दिया, अंतरात्मा की हत्या कर दी, स्वाभिमान से मुँह मोड़ लिया, विश्वविद्यालयों के बाहर गर्भनिरोधक साधन उपलब्ध करवा दिए ...और हल्ला कर दिया कि हम सुसंस्कृत हो गए हैं ।  

-      हम चाँद और मंगल पर बस्तियाँ बसाने के स्वप्न देख रहे हैं पर हम यह तय कर पाने में असफल रहे हैं कि हमें दूध, घी, दाल, सब्जी, चावल और रोटी का सेवन करना चाहिए या अफीम, हशीश, कोकीन, गाँजा और चरस का ।

-      हम सब सुसंस्कृत, आधुनिक, प्रगतिशील और न जाने क्या-क्या होने का दावा करते हैं किंतु दुनिया को बम से तबाह करने के लिए हर पल तैयार रहते हैं ।

-      हमें कभी तो बैठकर सोचना होगा कि इतनी लम्बी यात्रा में हमने आज तक क्या पाया और क्या खोया है ।  

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

कोरोना का इलाज़...

सीटी स्केन की रिपोर्ट आ गयी है । घोष बाबू की पत्नी ने बेटे से पूछा – “क्या लिखा है रिपोर्ट में?”

बेटे ने पढ़कर सुनाया – “ग्राउण्ड ग्लास हैज़ीनेस विद इंटरलोब्युलर सेप्टल थिकनिंग इन बाई लैटरल लंग फ़ील्ड्स... अलमोस्ट इनवॉल्विंग होल पैरेन्काइमा... कैल्सीफ़ाइड लीज़न इन राइट एपिकल रीज़न... मिड एण्ड लोअर ज़ोंस ऑफ़ लंग्स ...”।

माँ ने बीच में ही टोक कर पूछा – “ मतलब सब ठीक है न!”

बेटे ने उदास होकर कहा – “नहीं, दोनों फेफड़ों में इण्टरलोब्युलर सेप्टल थिकनिंग हैऔर ऊपरी हिस्से में चूना जम गया है”।  

“हे भगवान चूना? लेकिन हम लोग तो आरो का पानी पीते हैं ...”

बेटे ने माँ की ओर देखा पर कोई उत्तर नहीं दिया । 

प्रोफ़ेसर घोष को आगरा से गुरुग्राम आये हुये अठारह दिन हो चुके हैं । अगरतला वाली त्रिपुर सुंदरी घोष बाबू की पत्नी के निरंतर सम्पर्क में हैं । एक दिन त्रिपुर सुंदरी ने मोतीहारी वाले मिसिर जी को सूचना दी – “...रिपोर्ट में कोरोना पॉज़िटिव निकला था, आगरा में तीन दिन तक भर्ती रखा, हालत और बिगड़ गई तो गुरुग्राम ले जाना पड़ा । बाप रे... रोज का खर्चा एक लाख से अधिक ही हो रहा है ...वेंटीलेटर पर हैं ...किसी को मिलने नहीं दे रहे हैं...”।

खर्चे की बात पर मिसिर जी ने रोषपूर्वक कहा – “न वैक्सीन न दवा ...फिर भी खर्चा एक लाख रोजाना ...हॉई कवन सा इलाज़ बा? हमरा नियन गरीब-गुरबा त खर्चवय सुन के मुआ जाई

त्रिपुर सुंदरी ने कहा – “वही तो...और यह भी निश्चित नहीं कि मरीज़ वापस घर आ भी पायेगा या नहीं”।

गुरुग्राम आये हुये बीस दिन हो गये हैं । घोष बाबू की पत्नी परेशान हैं, पति की आवाज़ सुने जैसे कई युग बीत गये हों । बेटा दिन भर में न जाने कितनी बार पैरामेडिकल स्टाफ़ से बात करता है, सुबह और शाम को डॉक्टर से भी बात करता है । घोष बाबू की पत्नी दूर खड़ी रहकर सब कुछ देखती रहती है, फिर धीरे-धीरे चलकर बेटे के पास पहुँचती है । अब वह बहुत कम बोलती है, माँ-बेटे के बीच अब आँखों और चेहरे की भाषा में सम्वाद होने लगा है ।   

एक दिन पैरामेडिकल स्टाफ़ ने सूचना दी – “डायलिसिस करना होगा

घोष परिवार चिंतित हो गया । बेटे ने एक जूनियर डॉक्टरके सामने चिंता ज़ाहिर की – “डायलिसिस? तो क्या अब किडनी भी काम नहीं कर रही? आपके हिसाब से सर्वाइवल की क्या सम्भावनाएँ हैं?”

डॉक्टर ने उत्तर दिया – “हम दुनिया का बेस्ट ट्रीटमेंट दे रहे हैं”।

आज अगरतला वाली त्रिपुर सुंदरी ने वाट्स अप पर घोष बाबू का एक चित्र पोस्ट किया है । चित्र पर बहुत सी मालाएँ हैं और पास में अगरबत्तियों से धुआँ निकल रहा है । त्रिपुर सुंदरी ने अपनी पोस्ट में केवल चित्र ही पोस्ट किया है, लिखा कुछ भी नहीं ।

बहुत कुछ कहने के लिए कई बार एक भी शब्द की आवश्यकता नहीं हुआ करती ।

कोरोना का कहर ज़ारी है, मौतें हो रही हैं और फ़ार्मा शेयर्स उछाल मार रहे हैं । ख़बर है कि बड़े-बड़े स्टार हॉस्पिटल्स के शेयर्स एक बार फिर भागने वाले हैं । दोपहर को मोतीहारी वाले मिसिर जी का फोन आया था ...निःशब्द । वाणी थी, शब्द नहीं थे । निःशब्द संवाद की शक्ति गहराई तक प्रभाव छोड़ती है ।


बुधवार, 23 सितंबर 2020

मुस्लिम समुदाय के लिए...

नफ़ीस हिंदुस्तानी में चबा-चबा कर बात कहते हुये अपनी बुद्धिमत्ता का बड़ी ख़ूबसूरती से इज़हार करने वाले स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव यदि उमर ख़ालिद की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लगें तो किसी को अचम्भित नहीं होना चाहिये । भारतीय संविधान नें उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है, अभिव्यक्ति उन विचारों की जो नकारात्मक भी हो सकते है और सकारात्मक भी । पिछले कुछ सालों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जो हंगामे होते रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो गया है कि यह स्वतंत्रता हमें मनुष्य, दैत्य, देव, दानव या राक्षस बनने की स्वतंत्रता प्रदान करती है ।

दि प्रिंट में प्रकाशित उनके विचार के अनुसार “उमर ख़ालिद की ग़िरफ़्तारी से भारतीय मुसलमानों की युवा पीढ़ी के लिए गरिमामय और लोकतांत्रिक आवाज़ उठाने का दरवाज़ा बंद हो गया है”।

योगेंद्र यादव आगे लिखते हैं – “उमर ख़ालिद उन क्रांतिवीरों में नहीं हैं जो भारतीय राजसत्ता को हिंसा के सहारे पलट देने का दिवास्वप्न देखते हैं । वह लोकतांत्रिक राजनीति के आड़े-तिरछे रास्तों पर चलने की चाहत से भरा नौजवान है ।

...वह वंचना के शिकार अन्य समुदायों – दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि की दयनीय दशा से मुस्लिम समुदाय की वंचना की स्थिति को जोड़कर देखता-समझता है । वो संविधान प्रदत्त अधिकारों के मुहावरे में बोलता है, ठीक वैसे ही जैसे कि किसी अन्य समुदाय का नेता बोलेगा । लेकिन वह ख़ास तौर से एक ऐसे भेदभाव के ख़िलाफ़ बोलता है जो मुसलमानों के साथ उनके मुस्लिम होने के कारण किया जा रहा है और जो अन्य वंचित समुदायों और गरीबों के साथ होने वले भेदभाव से अलहदा है । वह भेदभाव भरे नागरिकता क़ानून के अग्रणी मोर्चे पर रहा लेकिन इस आंदोलन में उसने मुस्लिम सांप्रदायिक संगठनों से दूरी बनाए रखी ।

अगर आप नौजवान हैं, क्रांतिकारी तेवर के हैं, मुसलमान हैं तो फिर उमर ख़ालिद की ग़िरफ़्तारी का आप क्या अर्थ निकालेंगे ? अब आप ये तो नहीं कर सकते कि ना कि नौजवान ही ना रहें । शायद आप युवा के स्वाभाविक बगावती मिजाज़ से भी समझौता नहीं कर सकते और आप ये तो निश्चित ही नहीं चाहेंगे कि अपनी मुस्लिम पहचान से मुँह मोड़ लें, वो भी डर के मारे. जो आप ये सब नहीं करते तो फिर आपके पास विकल्प ही क्या बचता है ?

हो सकता है, उमर ख़ालिद की ग़िरफ़्तारी उसके लिए व्यक्तिगत त्रासदी ना हो, जैसा कि लोकमान्य तिलक ने कहा था, शायद सच यही हो कि आज़ाद रहने के बजाय जेल की कोठरियों में बंद होने से उसकी आवाज़ ज़्यादा गूँजे । ऐसा हो सकता है कि वह इस क़ैद के चलते देश का नायक बनकर उभरे, जिसका वो हक़दार भी है । लेकिन त्रासदी यह है कि उमर ख़ालिद की ग़िरफ़्तारी से भारतीय मुसलमानों की एक पूरी युवा पीढ़ी के लिए गरिमामय और लोकतांत्रिक तरीके से अपनी आवाज़ उठाने का दरवाज़ा मानो बंद हो गया है । दर असल यह त्रासदी उमर ख़ालिद के साथ नहीं, भारत के स्वधर्म के साथ घटित हुयी है” । -  दि प्रिंट, 17 सितम्बर 2020   

           योगेंद्र यादव का यह लेख ऐसे समय में आया है जब शाहीन बाग के बाद हुये दिल्ली दंगों के आरोप में उमर ख़ालिद को ग़िरफ़्तार किया गया है । यह आरोप सही भी हो सकता है और ग़लत भी । जेलयात्रा इन लोगों के लिए एक ऐसा मंच है जो उन्हें रातोरात सात समंदर पार तक चर्चित कर देता है और किसी राजनीतिक दल से टिकट पाने का सुपात्र भी बना देता है । ख़ैर, हम चाहते हैं कि उमर पर लगाये गये आरोप वास्तव में गलत हों और उसे शीघ्र ही जेल से मुक्ति मिल जाय ।    

शायद पिछले साल ही या उसके पहले ...उमर ख़ालिद की उपस्थिति बस्तर में भी देखी गयी थी । मुझे योगेंद्र यादव के इस क्रांतिवीर से मिलने की तनिक भी इच्छा नहीं हुयी थी । बस्तर जे.एन.यू. वालों के लिए एक तीर्थस्थल बन गया है जहाँ से वे अपने आंदोलनों के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं । उन्हें पालघर जैसी दुर्दांत घटनाएँ द्रवित नहीं करतीं और न उसमें उन्हें कोई अन्याय दिखायी देता है ।

          योगेंद्र यादव का क्रांतिवीर “दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि की दयनीय दशा से” प्रेरित होकर  “मुस्लिम समुदाय की वंचना” के लिए “अपने समुदाय” की ओर से आवाज़ उठाने के कारण जेल में डाल दिया जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उसकी आवाज़ और भी बुलंदी से गूँजने की कल्पना के साथ योगेंद्र जी उसे भारत का एक भावी नायक प्लांट करते हैं । मोतीहारी वाले मिसिर जी को योगेंद्र यादव की बात में “दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि” का उल्लेख एक अनावश्यक गोटा लगता है जिसका उद्देश्य केवल भोलेभाले आम नागरिकों को ठगने और भारतीय समाज को बाँटने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

योगेंद्र यादव ने क़माल की बात की है ...उमर ख़ालिद प्रेरित तो होता है दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि की दयनीय दशा सेकिंतु वह उनके लिए आवाज़ न उठाकर “अपने समुदाय” के लिए आवाज़ उठाता है । मिसिर जी पूछते हैं – “...तब “दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि की दयनीय दशा” सुधारे खातिर आवाज़ के उठाई ? दूसर बात ई के दयनीय दशा बा दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि की” लेकिन तोहार नायक आवाज़ उठावता आपन मुस्लिम समुदाय के ।...मने कैंसर के रोगी बा रमेसर दलित आ इलाज़ करबा नसीरुद्दीन के! गज़ब के किरांती बा तोहार ।

          योगेंद्र यादव जैसे लोग बातों में गोटा लगा कर उनकी प्रदर्शिनी लगाने में दक्ष होते हैं ...बाजार में माल बेचने के लिए उसका गोटेदार होना माक़ूल होता है । मुस्लिम समुदाय की आवाज़ का वज़न बढ़ाने के लिए उसमें दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं” का गोटा लगाना आवश्यक है । 

           “अपने समुदाय” की वंचना और बेहतरी के लिए मोहम्मद अली ज़िन्ना ने भारत का बँटवारा करवा लिया । लालच और बढ़ा तो युद्ध करके कश्मीर और बलूचिस्तान भी छीन लिया । मोहम्मद अली ज़िन्ना “अपने समुदाय” के लोगों की बेहतरी के लिए एक अलग घर पाकर ख़ुश तो थे किंतु संतुष्ट नहीं । अब शेष बचे भारत में उमर ख़ालिद को “अपने समुदाय” के लोगों की बेहतरी के लिए क्रांतिवीर बनने की आवश्यकता आन पड़ी है । योगेंद्र यादव चिंतित हैं कि भारत के ऐसे उभरते नायक को जेल में क्यों डाल दिया गया है? योगेंद्र यादव इस बात से बिल्कुल भी चिंतित नहीं हैं कि पालघर में दो संतों और उनके वाहन चालक की पीट–पीट कर नृशंस हत्या क्यों कर दी गयी ? शायद इसलिए क्योंकि वे संत उमर ख़ालिद के “अपने समुदाय” से सम्बंधित नहीं थे ।

मोतीहारी वाले मिसिर जी इस बात से हैरान हैं कि बँटवारे के बाद भी मुस्लिम समुदाय के लिए चिंतित रहने वाले ग़ैरमुस्लिम लोग आख़िर अन्य समुदायों के लिए चिंतित क्यों नहीं होते ? उन्हें यह भी हैरानी होती है कि धर्मनिरपेक्ष देश के लोग समुदायों की बात छोड़कर भारतीय नागरिकों की बात करना आख़िर कब प्रारम्भ करेंगे ?

चलते-चलते

मूल्यांकन की एक बेहतरीन बानगी –

दुनिया के एक सौ प्रभावशाली लोगों में अपना नाम सम्मिलित करवाने के लिए आपको केवल इतना करना होगा

1-      भारत के संविधान का विरोध करें, कैमरा सामने हो तो संविधान की प्रति फाड़ कर उसमें आग लगा दें ।

2-      किसी महानगर के व्यस्त चौराहे को कई महीने के लिए जाम कर दें । 

एक और विश्वयुद्ध की आहट...

रणभूमि की बंजर खेती में शांति के बीज बोते रहना सभ्य समाज की प्रगतिशील आवश्यकता है । हम बिना युद्ध के नहीं रह सकते । हम या तो शीत युद्ध कर रहे होते हैं या फिर वास्तविक युद्ध । शीतयुद्ध वास्तविक युद्ध के लिए उर्वर भूमि तैयार करते हैं, और वास्तविक युद्ध अगले शीतयुद्ध की सम्भावनायें बोते हैं ।

इस समय चीन और पाकिस्तान भारत पर आक्रमण के लिए उतावले हो रहे हैं । चीन पाकिस्तान को छोड़कर अपने सभी पड़ोसी देशों को निगल जाने के लिए तैयार है । अमेरिका, ईरान, रूस और आस्ट्रेलिया भी युद्ध में कूदने को तैयार बैठे हैं । युद्ध का संश्लेषण अपने चरम की ओर है और यदि युद्ध हुआ तो एक-दूसरे के संसाधन हथियाने के लिए एक-दूसरे के संसाधनों को नष्ट करने की होड़ लग जायेगी ।

प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने की होड़ में सभ्य समाज के उन्नत राष्ट्राध्यक्ष दुष्टता और क्रूरता की सारी सीमायें छिन्न-भिन्न करके वैभव का साम्राज्य खड़ा करना चाहते हैं । यह मनुष्य की आदिम भूख है ।   

सामाजिक और राजनीतिक अनुकूलन सत्ताधीशों की सार्वकालिक आवश्यकता हुआ करती है । आपको याद होगा, पश्चिम की नयी-नवेली औद्योगिक क्रांति ने दुनिया के कई समीकरणों को बदल कर रख दिया था । कूटनीतिक वार्तायें असफल हुयीं और सभ्य लोगों में युद्धों का एक असभ्य सिलसिला प्रारम्भ हो गया था ।  

यह बीसवीं शताब्दी की शुरुआत थी जब सत्ताधीशों ने द वार टु एण्ड आल वार्सके आश्वासन के साथ जुलाई 1914 से नवम्बर 1918 तक लाखों लोगों का ख़ून बहा दिया । किंतु न तो वह द एण्ड ऑफ़ द वारथा और न उससे किसी तरह की शांति की स्थापना हो सकी, कुछ ही साल बाद ख़ून फिर बहा । किंतु वह भी लास्ट वार फ़ॉर पीस नहीं हो सका । शायद यह किसी उम्मीद से अधिक एक ज़िद थी ...ठीक उसी तरह की ज़िद जैसी कि मध्य एशिया से प्रारम्भ होकर आज पूरी दुनिया में व्याप्त हो चुकी वार फ़ॉर पीसकी धूर्ततापूर्ण आतंकवादी अवधारणा । 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी युद्धों का सिलसिला कभी थमा नहीं । फ़िनिश सिविल वार (27 जनवरी 1918 से 15 मई 1918 तक) के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ जो 1 सितम्बर 1939 से 2 सितम्बर 1945 तक तबाही मचाता रहा ।

इस बीच यह दुनिया विंटर वार (नवम्बर1939 से मार्च 1940), ग्रेट पैट्रियाटिक वार (22 जून 1941 से 9 मई 1945), बैटल ऑफ़ मिडवे (4जून 1942 से 7जून 1942), बैटल ऑफ़ द बल्ग (दिसम्बर 1944 से जनवरी 1945), कोरियन युद्ध (जून 1950 से जुलाई 1953), वियतनाम युद्ध (नवम्बर 1955 से अप्रैल 1975), भारत-पाकिस्तान युद्ध, भारत चीन युद्ध और सीरिया गृहयुद्ध से तबाह होती रही है, …और बुद्ध हर बार नेपथ्य में कहीं धकेल दिये जाते रहे हैं । 

आज एक बार फिर हम युद्ध के मुहाने पर हैं । तबाही के अत्याधुनिक और महाघातक आयुध धरती, आकाश और जल में मानवीय तबाही के साथ-साथ पर्यावरण और जैवविविधता को भी तबाह करने के लिए सजने लगे हैं । इस बार कोई अर्जुन दिखाई नहीं देता जो यह कह सके कि– “यदि इतनी तबाही होने वाली है तो यह युद्ध जीत कर भी हम विजित नहीं बल्कि वंचित और पराजित ही होंगे।   

बुद्ध की तलाश...

 

बस्तर के लोगों को इस बात का पूरा यक़ीन है कि जिस दिन स्वतंत्र भारत की पुलिस ने राजा के महल में घुस कर निहत्थे राजा को गोलियों से भून डाला था उसी दिन से बस्तर की देवी रूठ गयी है ।

सरकारें आती हैं, सरकारें जाती हैं, क्रांति हो रही है, गोलियाँ चल रही हैं, …पढ़े-लिखे लोग इसे ही वार फ़ॉर पीसकहते हैं । पूरब में पश्चिम को रोप दिया गया है और बुद्ध के देश में बुद्ध की तलाश अब कोई नहीं करता! 

मोतीहारी वाले मिसिर जी कहते हैं –“ए हो मरदे! हमरा के बुड़बक मत बनावा, बंदुकिया से सांती निकलेला के धुआँ निकलेला!

पिछले कई दशकों से शांत बस्तर को दहशत का पर्याय बनाने की कोशिशें होती रही हैं । कई दशक पहले बंगाल का नक्सलवाड़ी गाँव अशांत हो गया था, अशांति के विरुद्ध क्रांति हुयी जो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गयी । क्रांति आज भी हो रही है, नक्सलवाड़ी गाँव आज भी अशांत है । पूरा देश अशांत है और माओवादी क्रांति कभी-कभी चुपके से आकर कहीं भी अपने क्रूर हस्ताक्षर करके चली जाती है ।

बस्तर के जंगलों में अब बारूद की गंध आने लगी है । कभी-कभी एक चीख के साथ गरम-गरम लहू बहता है, कुछ देर के लिए आयी दहशत पूरे जंगल में ख़ामोशी परोस देती है । अगली सुबह ठहरी हुयी हवायें चलने लगती हैं, शंकिनी-डंकिनी नदियों का पानी यथावत बहता रहता है और ज़िंदगी एक बार फिर ठुमकने लगती है ।   

दशकों पहले शांत बस्तर के जंगलों में बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे कुछ लोग आये, उन्होंने ढपली बजाकर अन्याय और न्याय के गीत गाते हुये एक दिन भोले बस्तरियों के हाथों में बारूद थमा दी । अन्याय जो नहीं था, अब होने लगा है । न्याय, जिसके सपने दिखाये गये थे अब सपनों में भी दिखायी नहीं देता । पता नहीं कब नक्सलवाड़ी गाँव की क्रांति नक्सलवाद से होती हुयी माओवादी रक्तक्रांति में रूपांतरित हो गयी और सत्ता को पता भी नहीं चला ।

इन कुछ दशकों में बारूद की गंध जंगल में छाने लगी और बस्तर की मैना आख़िर एक दिन रूठ ही गयी । जंगल के बहुत से जीव-जंतु अब दिखायी नहीं देते किंतु इंद्रावती और महानदी की जलधारायें आज भी उनकी प्रतीक्षा करती हैं, शालवनों का द्वीप आज भी गमकता है, मधुमक्खियाँ आज भी बड़े-बड़े छत्तों में शहद जमा करती हैं, कोसा ककून बनाने वाली तितलियाँ आज भी जहाँ-तहाँ मँड़राती हैं, बुधिया आज भी पत्थर की सिल पर लाल चीटों की चटनी पीसती है, तीरथगढ़ के जलप्रपात में आज भी चेलक और मोटियारिन को स्नान करते हुये देखा जा सकता है, …सियासत न हो और मैना वापस लौट आये तो बस्तर आज भी ख़ूबसूरत है ...उतना ही जितना कि कुछ दशक पहले था ।

जंगल के लोग आपस में एक-दूसरे से पूछने लगे हैं – “शाल वन के द्वीप में यह कौन घुस आया है, क्यों घुस आया है? हमें हमारे हाल पर क्यों नहीं छोड़ दिया जाता”?

बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग जंगल में उग रहे प्रश्नों की झाड़ियों से बच कर निकल जाने के अभ्यस्त हो गये हैं । शालवनों का द्वीप अब प्रश्नवनों का द्वीप हो गया है । जंगल को मालुम है कि दिल्ली की सर्द रातों में उसके प्रश्नों की झाड़ियों को सुलगाकर वहाँ के महलों को गर्म रखा जाता है । जंगल को यह भी मालुम है कि दिल्ली के महलों में आग तापते लोग बैंकों के निजीकरण की और घोटुल के सरकारीकरण की महत्वाकांक्षी योजनायें बनाने में व्यस्त हैं, उन्हें जंगल से बात करने का कभी समय नहीं मिला करता ।

इधर, दिल्ली से लगभग सत्रह सौ किलोमीटर दूर नारायणपुर के मेले में आज भी रिलो-रिलो के गीत रात के अँधियारे में चेलक को गुदगुदाते हैं । बारूद का धुआँ न हो तो बस्तर के घोटुल अँगड़ाई लेकर फिर से उठ खड़े होने के लिए तैयार हैं । आपने कभी तनिक भी ध्यान दिया होता तो आपको पता चल जाता कि फागुन में आज भी जंगल के पलाश श्रृंगार करके आपकी राह देखते रहते हैं और सल्फी के झाड़ पर लटकते विशाल झुमके पहले की तरह आज भी आपको आमंत्रित करते हैं । आप एक बार बस्तर आइये तो सही!  

रविवार, 20 सितंबर 2020

भीड़ का चरित्र...


अब वे दिन गये जब राजा वेश बदलकर प्रजा का हाल जानने के लिए भीड़ में निकला करते थे । शुरुआती दिनों में अरविंद केजरीवाल ने वादा किया था कि वे राजनीति में आने के बाद भी आम आदमी बने रहेंगे । उनका वादा आज तक पूरा नहीं हो सका ।   

भीड़ का चरित्र जानने के लिए भीड़ का हिस्सा होना आवश्यक है । नब्बे के दशक में मेरे पुर्तगाली मित्र डेनीसन बेर्विक ने गंगासागर से गोमुख की पदयात्रा प्रारम्भ करने से पहले बंगला सीखी, बंगालियों की तरह लुंगी-कुर्ता पहनने और भारतीय भोजन करने का अभ्यास किया । यह सब इसलिए कि वह भारत को क़रीब से देख और समझ सके । वह बात अलग है कि इस पदयात्रा में अपनी चमड़ी के रंग के कारण वह भीड़ का हिस्सा नहीं बन सका ...और शायद इसीलिए वह भारत को क़रीब से जान भी नहीं सका । “अ वाक अलॉन्ग द गंगेज़” के अनंतर हर भारतीय ने उससे अंग्रेज़ी में ही बात की जबकि वह फ़्रेंच मूल का पुर्तगाली बंदा है । ख़ैर ! मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि जब तक आप विशिष्ट रहते हैं तभी तक आम आदमी आपके साथ आपके पद और सामाजिक रुतबे के अनुसार व्यवहार करता है । जैसे ही आप अपने पदीय-सामाजिक-आर्थिक आभामण्डल से बाहर निकलते हैं वैसे ही आप आम आदमी के शोषक चरित्र का शिकार होना शुरू हो जाते हैं । यदि आप अन्याय सहने के अभ्यस्त नहीं हैं तो भीड़ का चरित्र आपको विद्रोही बना देगा ।

आज यह सब लिखने का कारण उमर ख़ालिद के महिमा मण्डन में लिखा योगेद्र यादव का वह हालिया लेख है जो ”दि प्रिंट” में प्रकाशित हुआ है और जिसमें उन्होंने उमर ख़ालिद को एक महान नेता के रूप में महिमा मण्डित किया है ...एक ऐसा प्रखर युवा नेता जो अपने ज़मात की भीड़ की बेहतरी के लिए आवाज़ उठाने के कारण ही आज सलाखों के पीछे भेज दिया गया है ।

अपने बचपन से लेकर आज तक भीड़ का जो चरित्र मैंने देखा है उसके आधार पर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आम आदमी की प्रवृत्ति हिंसक और शोषक हुआ करती है । यह एक वैश्विक स्थिति है । सामंथा को भी आप भूले नहीं होंगे । हाँ ! स्पेन की वही आर्टीफ़िशियल इंटेलीजेंसी ड्राइवेन लव डॉल रोबोटिक सामंथा जिसे सितम्बर 2017 में अपने प्रथम प्रदर्शन में ही स्पेन की भीड़ में नोच-नोच कर क्षतिग्रस्त कर दिया था । स्पेन की रोबोटिक कम्पनी सिंथिया अमेटस ने सामंथा की रचना पुरुषों के अकेलेपन को दूर करने के लिए की थी । वह दर्शन और विज्ञान जैसे विषयों पर आपसे चर्चा कर सकती थी और आपके साथ आपकी शरीक-ए-हयात की तरह ही व्यवहार भी कर सकती थी । यह भीड़ का चरित्र था जिसने सामंथा को भी नहीं छोड़ा ।  

योगेंद्र यादव के लेख पर मेरी टिप्पणी अगले लेख में ...   


शनिवार, 19 सितंबर 2020

लुगदी साहित्य से एक गीत

 धम धमक धूम, धम धमक धूम

गाँजे का शौक़ पड़ा महँगा

दशकों से जो छिपे रहे, अब राज हो रहे ज़ूम-ज़ूम ।

 

चिखला-चिखला हर ओर हुआ

फिर चरस आज बदनाम हुआ

चोरी है सीना जोरी है, नेता अभिनेता बूम-बूम ।

 

अब तक क्यों चुपचाप रहे

क्यों पकड़ा-धकड़ी का है मंचन

था जाल बुना सबने मिलकर, फिर पाला-पोसा चूम-चूम ।

 

है जाल बहुत लम्बा-चौड़ा

हाथों में सबके एक छोर

किसको पकड़ूँ किसको छोड़ूँ, हर हाथ उठेगा घूम-घूम ।

 

देता है कौन किसे अपनी

चाँदी की थाली बता मुझे

तेरी थाली तेरा गाँजा, कोकीन चरस की धूम-धूम ।   

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

कोठों से होकर संस्कृति का उद्धार...

दुनिया की हर बुरी चीज से हमें मोहब्बत है किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि हम उसे पसंद भी करते हैं ।

हमें हिंदुत्व से बेपनाह मोहब्बत है, भारतीय संस्कृति और विक्रमादित्य की न्याय प्रणाली में गहरा विश्वास है ...और हम चाहते हैं कि भारत में रामराज्य की स्थापना हो, किंतु...

...किंतु भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए भ्रष्टाचार से गहरी मोहब्बत करना हमारी विवशता है । यानी कोठे ख़त्म करने के लिए हमने कोठों पर जाना शुरू कर दिया है । ...यूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि हम भ्रष्टाचार को पसंद करते हैं और अब कभी उसका विरोध नहीं करेंगे । जब-जब हमारे विरोधी भ्रष्टाचार में लिप्त होंगे तब-तब हम उनके ख़िलाफ आग उगलते रहेंगे ।

विरोध करने का अर्थ यह नहीं है कि हम भ्रष्टाचार में सम्मिलित नहीं रहेंगे ...अवसर मिलते ही भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूब जाना ही तो पुरुषार्थ है । हम पुरुषार्थी हैं, …अवसर भी है ...और इसलिए अब हम कोई भी काम रिश्वत लिए बिना नहीं करेंगे ।

आप हमारे प्रियपात्र हैं क्योंकि आप ईमानदार व्यक्ति हैं ...हम नहीं चाहते कि आपका कोई नुकसान हो, कोई आपको थप्पड़ मारे ...कोई आपके घर में आग लगा दे ...इसलिए व्यावहारिक बनिए और हमें चौथ देना शुरू कर दीजिये । यह एक सामान्य शिष्टाचार है ...और हमारा दावा है कि हम इसी शिष्टाचार के बल पर भारत में रामराज्य की स्थापना कर देंगे । विक्रमादित्य बनने का रास्ता रावणत्व से होकर जाता है इसलिए पहले हम रावण बन गये हैं । यदि कभी यह रास्ता औरंगज़ेबत्व से होकर जायेगा तो हम औरंगज़ेब भी बनने को तैयार हो जायेंगे ।

कोठे बुरे हैं ...जब तक हमें अवसर नहीं मिलता, भ्रष्टाचार बुरा है ...जब तक हमें अवसर नहीं मिलता, रिश्वतखोरी बुरी है ....जब तक हमें रिश्वत लेने का अवसर नहीं मिलता । अवसर मिलने पर भी हम भारतीयता और भारतीय संस्कृति के ठेकेदार बने रहते हैं ...और अपनी इस दुष्टता पर हमें गर्व है ।

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

मारीज़ुआना – एक स्वीकार्य वर्जना ...

ध्यान से देखिये तो पता चलेगा कि थाली में तो छेद ही छेद हैं ।

एक कलाकार की अल्पायु मृत्यु, …मृत्यु के रहस्य को अनावृत करने की माँग, …माँग पर विवाद, …विवाद पर हंगामा, …हंगामे के बाद विवेचना, …विवेचना के मंथन से निकला हलाहल, …हलाहल में डूबे लोग, ... लोगों को बचाने के अभियान की चर्चा, …चर्चा पर थाली में छेद, … वाक्युद्ध अभी चालू है... ।

हलाहल मारीज़ुआना नहीं बल्कि वह निरंकुशता और स्वच्छंदता है जिसने मारीज़ुआना को एक वर्ज्य वस्तु बना दिया है । वातावरण गरम है, और ड्रग्स को लेकर छोटे परदे पर हंगामा है, किंतु मैं ...

...किंतु मैं पहले की तरह आज भी मारीज़ुआना को लीगलाइज़ किए जाने के पक्ष में हूँ । एक चमत्कारी औषधि के दुरुपयोग ने उसे वर्ज्य बना दिया है । पश्चिम के कई देशों में मेडिकल मारीज़ुआना के लिए डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन पर निर्धारित अवधि के लिए मारीज़ुआना सेवन की अनुमति प्रदान की जाती है । कैंसर के केसेज़ में कीमोथेरेपी के साइड इफेक्ट्स को कम करने और शीघ्र रिकवरी के लिए मेडिकल मारीज़ुआना के निर्धारित डोज़ से होने वाले चमत्कार की ख्याति पूरी दुनिया में है । केवल मजे के लिए और बिना पर्याप्त कारण के मारीज़ुआना का सेवन विषाक्त ही नहीं घातक भी है ।

कौन नहीं जानता कि भारत में मारीज़ुआना का बड़ी मात्रा में सेवन किया जाता है ...कैंसर रोगियों द्वारा नहीं बल्कि कुछ बाबाओं और नसेड़ी शौक़ीनों के द्वारा । इसके अंतर सम्बंधों को समझना होगा ।

दहशत और आतंक के लिए अत्याधुनिक हथियार चाहिये, हथियारों के लिए बेशुमार पैसे चाहिये, बेशुमार पैसे कमाने के लिए ड्रग्स का धंधा चाहिये, ड्रग्स को खपाने के लिए उपभोक्ता चाहिये, उपभोक्ता तैयार करने के लिए बेशुमार पैसे वाले लोग चाहिये, बेशुमार पैसा किसके पास है ?

...तो ड्रग्स का धंधा आतंक से जुड़ा हुआ है और आतंक हथियारों के धंधे से जुड़ा है । आतंक सत्ता को चुनौती देने वाली एक समानांतर व्यवस्था है जिसके मूल में हथियार और ड्र्ग्स का क्रूर खेल है । बड़े-बड़े प्रतिष्ठित देश हथियार बनाते हैं सेना के लिए भी और आतंकवादियों के लिए भी । यह एक बहुत बड़ा उद्योग है, इस उद्योग को समाप्त करने की इच्छाशक्ति फ़िलहाल कहीं दिखाई नहीं देती ।

 

गोराई टु कैप ऑफ़ गुड होप एण्ड मेरी थाली सिर्फ़ मेरी...

वे युवावस्था के दिन थे और वह मेरी पहली मुम्बई यात्रा थी । कई बार जाने के बाद भी दिलवाली दिल्ली तो मुझे कभी नहीं लुभा सकी लेकिन दादर स्टेशन उतरते ही मायानगरी मुम्बई मेरे दिल-ओ-दिमाग में जो बसी तो आज तक बसी हुयी है ।

एक दिन गोराई बीच पहुँच कर गाइड ने बताया था – “यहाँ से समंदर के रास्ते सीधे चले जाइए तो आप कैप ऑफ़ गुड होप पहुँच जायेंगे ...और समंदर का यह बीच ड्र्ग्स के धंधेवालों के लिए स्वर्ग है

मैंने पूछा था – “जब आपको यह सब पता है तो पुलिस तक यह बात क्यों नहीं पहुँची?”

गाइड ने मेरी ओर देखा फिर हँस दिया, गोया कह रहा हो कि बिहारी बहुत बुद्धिमान होते हैं, लेकिन तुम बुद्धू बिहारी हो ।

मुम्बई, अंडरवर्ल्ड और ड्रग्स के रिश्ते वर्षों पुराने हैं । यह बात मेरी जवानी के दिनों में मुम्बई के गाइड ने मुझे बतायी थी । अब आज इतने दिनों के बाद बकौल गाइड मैं वही बात सायकिल सवार साम्राज्ञी को बताना चाहता हूँ ...इस क़ैफ़ियत के साथ कि मैंने कभी किसी की थाली में खाना नहीं खाया है ।    

ड्रग वहाँ भी है ड्रग यहाँ भी है...

ऑनर बना रहे इसलिए पाप को घर में ही दफ़न कर दो । यह आत्मघाती सोच है जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता । रविकिशन ने इण्डस्ट्री में सफाई की बात की है इससे इण्डस्ट्री बदनाम कैसे हो गयी?

ड्रग ही नहीं ज़िंदा ग़ोश्त का शौक भी है हमारे शहर की नयी पीढ़ी को ...

तीन साल पहले यानी 2016 में हमारे छोटे से शहर के एक अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में मुझे हेल्थ अवेयरनेस का कार्यक्रम करना था । कार्यक्रम के बाद स्कूल के शिक्षक ने अगले कार्यक्रम के लिए जो विषय दिया वह स्कूली छात्रों में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति के सम्बंध में था । तभी एक शिक्षिका ने कहा –“केवल नशा ही नहीं, सेक्सुअल बिहैवियर तो और भी अधिक चिंता का विषय है, उस पर भी एक कार्यक्रम होना चाहिये”।

मैं अवाक था जब मुझे बताया गया कि हायर सेकेण्ड्री स्तर के उस विद्यालय के छात्र-छात्रायें पढ़ने-लिखने के स्थान पर नशे और सेक्स की दुनिया में डूबते जा रहे हैं । लड़कियों की इसमें बराबर की सहभागिता है और उनमें नार्योचित शील-संकोच का अभाव भविष्य के एक ऐसे समाज का एक चित्र प्रस्तुत करता है जो बहुत भयावह है ।

पिछले साल यानी 2019 में जिस अस्पताल में मेरा स्थानांतरण हुआ उसके पास कई और सरकारी कार्यालय हैं और मिडिल स्तर के तीन विद्यालय भी । एक दिन ओपीडी में मुझे कुछ अज़ीब सी अप्रिय गंध महसूस हुई तो कर्मचारियों से कहीं कुछ जलने के बारे में पूछताछ करने पर मुझे बताया गया कि ओपीडी की खिड़की जहाँ बाहर की ओर खुलती है वहाँ किशोर लड़के आकर गाँजा पिया करते हैं । गाँजे की गंध से पहली बार परिचित हुआ । बात खुली तो पता चला कि किशोरवय लड़के-लड़कियाँ शराब, गाँजा और सेक्स के लिए अस्पताल बंद होने के बाद उस परिसर का खुलकर स्तेमाल करते हैं और यह सब वहाँ वर्षों से होता आ रहा है ।

इसके बाद मैंने कई बार ओपीडी से निकलकर गँजेड़ी लड़कों को समझाने की कोशिश की, हावभाव से वे लड़के बहुत ग़ुस्ताख़ और असामाजिक लग रहे थे । फिर दो बार मैंने पुलिस को फोन करके बुलाया, पुलिस वालों ने भी गँजेड़ी किशोरों को समझाया और कार्यवाही करने की चेतावनी दी ।

हमार आसपास आज भी सब कुछ यथावत चल रहा है और अब मैंने किसी से कुछ भी कहना बंद कर दिया है ।

माननीया सांसद जया बच्चन के वक्तव्य के बाद तो अब मुझे और भी चुप रहना चाहिये वरना कोई माननीय आरोप लगा सकता है कि मैं उनके शहर को बदनाम कर रहा हूँ और उनकी थाली में छेद कर रहा हूँ ।