बुधवार, 23 सितंबर 2020

एक और विश्वयुद्ध की आहट...

रणभूमि की बंजर खेती में शांति के बीज बोते रहना सभ्य समाज की प्रगतिशील आवश्यकता है । हम बिना युद्ध के नहीं रह सकते । हम या तो शीत युद्ध कर रहे होते हैं या फिर वास्तविक युद्ध । शीतयुद्ध वास्तविक युद्ध के लिए उर्वर भूमि तैयार करते हैं, और वास्तविक युद्ध अगले शीतयुद्ध की सम्भावनायें बोते हैं ।

इस समय चीन और पाकिस्तान भारत पर आक्रमण के लिए उतावले हो रहे हैं । चीन पाकिस्तान को छोड़कर अपने सभी पड़ोसी देशों को निगल जाने के लिए तैयार है । अमेरिका, ईरान, रूस और आस्ट्रेलिया भी युद्ध में कूदने को तैयार बैठे हैं । युद्ध का संश्लेषण अपने चरम की ओर है और यदि युद्ध हुआ तो एक-दूसरे के संसाधन हथियाने के लिए एक-दूसरे के संसाधनों को नष्ट करने की होड़ लग जायेगी ।

प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने की होड़ में सभ्य समाज के उन्नत राष्ट्राध्यक्ष दुष्टता और क्रूरता की सारी सीमायें छिन्न-भिन्न करके वैभव का साम्राज्य खड़ा करना चाहते हैं । यह मनुष्य की आदिम भूख है ।   

सामाजिक और राजनीतिक अनुकूलन सत्ताधीशों की सार्वकालिक आवश्यकता हुआ करती है । आपको याद होगा, पश्चिम की नयी-नवेली औद्योगिक क्रांति ने दुनिया के कई समीकरणों को बदल कर रख दिया था । कूटनीतिक वार्तायें असफल हुयीं और सभ्य लोगों में युद्धों का एक असभ्य सिलसिला प्रारम्भ हो गया था ।  

यह बीसवीं शताब्दी की शुरुआत थी जब सत्ताधीशों ने द वार टु एण्ड आल वार्सके आश्वासन के साथ जुलाई 1914 से नवम्बर 1918 तक लाखों लोगों का ख़ून बहा दिया । किंतु न तो वह द एण्ड ऑफ़ द वारथा और न उससे किसी तरह की शांति की स्थापना हो सकी, कुछ ही साल बाद ख़ून फिर बहा । किंतु वह भी लास्ट वार फ़ॉर पीस नहीं हो सका । शायद यह किसी उम्मीद से अधिक एक ज़िद थी ...ठीक उसी तरह की ज़िद जैसी कि मध्य एशिया से प्रारम्भ होकर आज पूरी दुनिया में व्याप्त हो चुकी वार फ़ॉर पीसकी धूर्ततापूर्ण आतंकवादी अवधारणा । 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी युद्धों का सिलसिला कभी थमा नहीं । फ़िनिश सिविल वार (27 जनवरी 1918 से 15 मई 1918 तक) के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ जो 1 सितम्बर 1939 से 2 सितम्बर 1945 तक तबाही मचाता रहा ।

इस बीच यह दुनिया विंटर वार (नवम्बर1939 से मार्च 1940), ग्रेट पैट्रियाटिक वार (22 जून 1941 से 9 मई 1945), बैटल ऑफ़ मिडवे (4जून 1942 से 7जून 1942), बैटल ऑफ़ द बल्ग (दिसम्बर 1944 से जनवरी 1945), कोरियन युद्ध (जून 1950 से जुलाई 1953), वियतनाम युद्ध (नवम्बर 1955 से अप्रैल 1975), भारत-पाकिस्तान युद्ध, भारत चीन युद्ध और सीरिया गृहयुद्ध से तबाह होती रही है, …और बुद्ध हर बार नेपथ्य में कहीं धकेल दिये जाते रहे हैं । 

आज एक बार फिर हम युद्ध के मुहाने पर हैं । तबाही के अत्याधुनिक और महाघातक आयुध धरती, आकाश और जल में मानवीय तबाही के साथ-साथ पर्यावरण और जैवविविधता को भी तबाह करने के लिए सजने लगे हैं । इस बार कोई अर्जुन दिखाई नहीं देता जो यह कह सके कि– “यदि इतनी तबाही होने वाली है तो यह युद्ध जीत कर भी हम विजित नहीं बल्कि वंचित और पराजित ही होंगे।   

1 टिप्पणी:

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