अफ़गानिस्तान में बिना अनुमति के विरोध प्रदर्शन करने वालों को गोली मार देने का हुक्म तालिबान सरकार द्वारा जारी किया गया है । विरोध प्रदर्शन से पहले न केवल नयी सरकार से अनुमति लेनी होगी बल्कि विरोध प्रदर्शन का स्थान, विषय, नारे आदि सब कुछ लिखकर बताना होगा । मुझे उस बूढ़े क्रिकेटर की बात याद आ रही है जो कहता है कि तालिबान के आने से पहले अफगानिस्तान पहले ग़ुलाम था अब आज़ाद हो गया है ।
कम्युनिस्ट
देशों की अनीश्वरवादी सरकारें चंगेज़ ख़ान की तरह लूटमार करके बनाये गये इस्लामिक स्टेट
ऑफ़ अफ़गानिस्तान के पक्ष में खड़ी गयी हैं । धर्म को अफीम मानने वाले कम्युनिस्ट्स को
इस्लाम धर्म, शरीया और “निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा” जैसे सिद्धांतों से अब कोई व्यावहारिक विरोध नहीं
है । तो क्या अब यह माना जाय कि कम्युनिस्ट भी ईश्वरवादी हो गये हैं, और उन पर भी भविष्य में इस्लामिक रंग चढ़ सकता है?
तालिबान
ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की तर्ज़ पर “द सो काल्ड अफ़गान रिवोल्यूशन” के बाद वहाँ
कत्ल-ओ-ग़ारत की परम्परा को बनाये रखा है । धार्मिक कट्टरता और अनीश्वरवादी कम्युनिज़्म
के दो परस्पर विपरीत ध्रुव एक दूसरे को तरजीह देते स्पष्ट देखे जाने लगे हैं । पॉलिटिकल
सिम्बियॉसिस के रचे जा रहे एक नये इतिहास की इबारत को पढ़ने की चेष्टा कर रही दुनिया
भौंचक है । अफ़गानिस्तान में निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा की हुकूमत कायम होने से जहाँ पाकिस्तान
के कुछ लोग दहशत में हैं तो वहीं कुछ लोग ख़ुशियाँ भी मना रहे हैं । अमरीकी सेना द्वारा
अफ़गानिस्तान में छोड़े गये विशाल आयुध भंडार को लूटकर पाकिस्तान में बेचा जा रहा है
। तालिबान सरकार की आय का अफ़ीम के बाद फ़िलहाल यही एक साधन है । शिक्षा की तालिबानी
बुनियाद के बाद भविष्य में भी अफगानिस्तान में नशा और कत्ल का उद्योग ही परवान चढ़ने
वाला है ।
आपको याद
होगा, तीस अगस्त को अमरीकी सेना के जहाज ने काबुल हवाई अड्डे से अंतिम उड़ान भरी,
उधर अगले ही दिन सरकार बनाने के लिये बेताब तालिबान आतंकियों ने
अफ़गानिस्तान के 138 शासकीय कर्मचारियों को ढूँढ-ढूँढ कर गोली से उड़ा दिया । बोल्शेविक
क्रांति के बाद लेनिन के आतंकियों ने लाखों रूसियों को इसी तरह गोलियों से भून
दिया था । लेनिन के बाद उसके उत्तरधिकारी स्टालिन ने भी विरोधियों के कत्ल की परम्परा
को जारी रखा और पहले से लगभग दो गुना अधिक विरोधियों को गोली से भून दिया ।
तालिबान
को अपनी ख़िलाफत पसंद नहीं है, कम्युनिस्ट लोगों को भी अपना विरोध
बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है । असहिष्णुता के इस कॉमन मिज़ाज ने दोनों ध्रुवों को क़रीब
ला दिया और कम्युनिस्ट देशों ने तालिबान का समर्थन कर दिया । कश्मीर में आग लगाने के
लिये पाकिस्तान को तालिबान की मदद की दरकार है । जबकि तालिबान वह ड्रैगन है जिसके शब्दकोष
में रहम और इंसानियत जैसे कोई शब्द हैं ही नहीं । पाकिस्तान की अवाम ने तालिबान के
ज़ेहन में लिखी इस इबारत को पढ़ लिया है और अब वह ख़ौफ़ में है । अफगानिस्तान की अवाम दहशत
में है, पचास लाख डॉलर के इनामी आतंकी सिराज हक्कानी के ग़ृह मंत्री
बनने के बाद अफ़गानियों का क्या होगा?
इतिहास के
नये-नये सफ़े लिखे जा रहे हैं, हर सफ़ा हैरत अंगेज़ बातों से लवरेज़
है । जब अतालिब (अशिक्षित) को तालिब (शिक्षित) की उपाधि से नवाजा जा सकता है तो ख़ूँखारों
के गैंग को शहंशाह की उपाधि से नवाजने में क्या हर्ज़ है! यूँ, हकीकात यह है कि किसी ने उन्हें नवाजा नहीं बल्कि उन्होंने ही ख़ुद को नवाज
लिया और किसी ने ऐतराज़ भी नहीं किया तो यह माना जायेगा कि दुनिया को उनका नवाजा
जाना क़बूल है ।
संयुक्त
राष्ट्र को बेचैन होना चाहिये कि उनके चौदह कुख्यात अपराधियों ने ख़ुद को अफ़गानिस्तान
का मुख़्तार घोषित कर दिया है । “अतालिब” तालिबान के असुर भक्त इस कल्पना से ख़ुश
हैं कि अब संयुक्त राष्ट्र को झक मारकर इन चौदह तालिबान को अपराधी कहना बंद करके
उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करना ही होगा ।
यह असुरों
का विजय काल है, वे हर विजय पर उत्साहित होंगे, विस्तार की योजनायें
भी बनायेंगे । दुनिया भर के सुरों के लिये यह लज्जा से डूब मरने का काल नहीं बल्कि
होश में आकर एक नयी रणनीति बनाने का काल है जिससे भस्मासुरों से दुनिया को बचाया जा
सके । हिंदू राजा वक्कादेव, कमलवर्मन, भीमदेव,
जयपाल और आनंदपाल आदि से शासित
रहे अफगानिस्तान की जड़ें उसके मातृदेश भारत में आज भी हैं । भारत की रक्षा के लिये
हमें प्राचीन भारत के हर भूभाग के बारे में गम्भीरता से चिंतन करना होगा, फिर चाहे वह अफ़गानिस्तान हो या पाकिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान
हो या अक्साई चिन, म्यानमार हो या बांग्लादेश ।
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