आपकी भैंस
आपकी नहीं है, उसकी है जिसके हाथ में लाठी है । यही नज़ीर पेश हुयी है, हो रही है, क्योंकि इस नज़ीर को पेश होने के सारे संसाधन
उन्होंने उपलब्ध करवा दिये थे जो शब्दों और अर्थों के साथ बलात्कार में दक्ष हैं ।
Alteration and modification के युग में “वागर्थाविव संपृक्तौ”
को पूछता ही कौन है!
रहीम ने
पूछा था – “कह रहीम कइसे निभय केर-बेर को संग” । आज रहीम होते तो मैं बताता – “सुन
रहीम अइसे निभय केर-बेर को संग, जइसे काबुल में सजय तालिबान को
रंग”।
ग्रहों की
गति सीधी ही नहीं होती, वक्र भी होती है । बूढ़े क्रिकेटर की बात मानें तो अफ़गानिस्तान में
पाकिस्तान और तालिबान ने मिलकर चरखा चलाया और अफ़गानिस्तान के दिमाग में पड़ी ग़ुलामी
की जंजीरें उतार दीं(“तोड़ दीं” नहीं लिखूँगा, तालिबान प्रेमी
अहिंसावादी अतिबुद्धिजीवियों को बुरा लगेगा) । अब वहाँ ख़ुश्बूदार गुलों की वारिश
हो रही है । स्वचालित राइफ़ल्स तो उन्होंने अमनचैन की झमाझम वारिश करवाने के लिये
अपने हाथों में पकड़ी हुयी हैं । पाकिस्तान, चीन, तुर्की और उज़्बेकिस्तान को पक्का भरोसा है कि अफ़गानिस्तान में एक
न्यायपूर्ण और अमनचैन वाली हुकूमत कायम हो गयी है जिसमें पाकिस्तानी सूफ़ियों और उनके
जंगी हवाई जहाजों से बरसी आयतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । सच और झूठ की मैन्यूफ़ेक्चरिंग
एण्ड मोडीफ़िकेशन्स से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है, कम से
कम पाकिस्तान, तुर्की, रूस, चीन और अमेरिका ने यह प्रमाणित कर दिया है । दुनिया के इन ताकतवर मुल्कों ने
यह भी प्रमाणित कर दिया है कि बंदूक का स्थान संविधान, कानून
की किताब और न्यायालय से भी ऊँचा है । सन् दो हजार इक्कीस की किशोर और युवा पीढ़ी ने
यह ज्ञान सारे सबूतों के साथ प्राप्त किया है । काली पोशाक के दीवाने पाकिस्तान और
तालिबान ने दुनिया के सामने यह नज़ीर पेश कर दी है कि अँधेरा इस ब्रह्माण्ड का शाश्वत
सत्य है, प्रकाश नश्वर है ...आता-जाता रहता है, आज है कल नहीं होगा किंतु अँधेरा हमेशा रहेगा ।
एक दिन
दुनिया को पता चला कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति तेज समुद्री चक्रवात में फँसी
डूबती नाव को छोड़कर इसलिये एयर-लिफ़्ट होकर विदेश भाग लिये जिससे कि नाव डूबने से
बच जाय । बहादुर अफ़गानी सेना युद्ध किये बिना ही हार गयी, मर्द
नामर्द हो गये और बाइस दिन के रक्तपात के बाद अंततः अफ़गानी जनानियों ने हक का
झण्डा बुलंद कर दिया । दुनिया के तमाम ताकतवर, शिक्षित और
धन्नासेठ मुल्कों ने अफगानिस्तान की तबाही को तमाशा बनने दिया, इंसानियत का फ़ालूदा बनाया और ख़ुद को बुरी तरह नंगा कर दिया ।
सत्य के
समर्थक विरले होते हैं, असत्य के समर्थकों की कमी नहीं हुआ करती, दुनिया की
यही रीति है । इसीलिए एक दिन हम सबने देखा कि बहुत सारे लिपे-पुते शब्दों ने
रातों-रात अपने अर्थ बदले और निहायत बेशर्मी के साथ दुनिया के सामने आकर खड़े हो
गये । फ़ारुख़ अब्दुल्ला को उमीद है कि पाकिस्तान से आयातित भेड़िए अफ़गानिस्तान में पहँचते
ही हंस बन जायेंगे । भारतविरोधी फ़ारुख़ अब्दुल्ला अफ़गानिस्तान के देशी हंसों को हंस
मानने के लिये तैयार नहीं है । महबूबा मुफ़्ती को पक्का यकीन है कि भारत में भी
आयातित भेड़ियों की सख़्त ज़रूरत है । पाकिस्तानी कबाब-बिरियानी की दावत उड़ाने वाले
शिरोमणि अकाली दल के नेता मनजिंदर सिंह सिरसा और पाकिस्तानी बूढ़े क्रिकेटर के
भारतीय अधेड़ दोस्त सिद्धू को पाकिस्तान के हुक्मरानों से गहरी मोहब्बत है, होनी चाहिये, दिल दा मामला है, लेकिन हिंदुस्तान से इतनी दुश्मनी क्यों?
ग़ुलामी
समाप्त करने का सबसे अच्छा उपाय है “ग़ुलाम” शब्द
का नाम बदलकर उसे “आज़ाद” पुकारने लगना,
ठीक वैसे ही जैसे ग़रीबी समाप्त करने के लिये “ग़रीब”
का नाम बदलकर “अमीर” रख
देना । बूढ़े क्रिकेटर ने निहायत बेशर्मी के साथ अफ़गानियों की आज़ादी का नाम “ग़ुलामी”
रख दिया और चरखा चलाकर उसे बड़े प्यार से उतार कर एक ओर रख दिया ।
अफ़गानिस्तान
की तालिबान सरकार के नये शिक्षा मंत्री ख़ुद में कभी तालिब नहीं रहे । तालिबान सरकार
के और भी बहुत से मंत्रियों का तालीम से कभी कोई नाता नहीं रहा किंतु वे ख़ुद को तालिब
मानते हैं क्योंकि उनके पास बंदूक और बारूद का इल्म है । पढ़े-लिखे लोग परेशान हैं कि
अपढ़ एवं अपराधी किस्म के लोग अफ़गानिस्तान की हुकूमत कैसे चलायेंगे? इस प्रश्न
का कोई औचित्य नहीं, लूटमार की हुकूमत के लिये किसी ज्ञान की
आवश्यकता नहीं होती । यूँ, मूसलयुद्ध अभी बाकी है, सूरज निकलने तक अँधेरे को कायम रहना ही होगा ।
वैश्विक
संकट की इस घड़ी में “तमसोमा ज्योतिर्गमय” की वैश्विक कामना वाले भारत की महती भूमिका के लिये दुनिया
आश्वस्त होना चाहती है । इस गहन अंधकार में मैं उन हाथों को दिया जलाते हुये देखना
चाहता हूँ जिन्होंने ईश्वर और मनुष्य के लिये उसके वास्तविक संदेश को समझा है ।
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