माया-मोह और परिवार के राग से निवृत्त वह व्यक्ति संत बनने के मार्ग पर चला था । मार्ग के प्रारम्भ में ही इंद्रपुरी पड़ती थी जिससे होते हुये आगे जाना था किंतु वह व्यक्ति इंद्रपुरी के वैभव से आसक्त होकर गहन राग में प्रवृत्त हो गया, नैष्ठिकी यात्रा अधूरी रह गयी । मोह से मुक्ति नहीं मिली बल्कि वह और भी गहन होती गयी, वैभव और सम्पत्ति से मुक्ति नहीं मिली बल्कि उसका और भी विस्तार होता गया ।
मोह का
साम्राज्य जैसे-जैसे बड़ा होता गया, प्राणों की सुरक्षा भी उतनी
ही महत्वपूर्ण होती गयी । दैहिक नश्वरता और आत्मा की अमरता का दर्शन धूमिल हो गया,
वेदांत दर्शन के सूत्र अर्थहीन हो गये और संत को अपने नश्वर शरीर की
रक्षा के लिये गनर्स और बाउन्सर्स की व्यवस्था करनी पड़ी । संत वृद्ध हुये तो उनके
आश्रम की अकूत सम्पत्ति के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष हुआ, उसके
बाद की घटनाओं को बताने की आवश्यकता होते हुये भी अनुमानजन्य होने से बताने की
आवश्यकता नहीं है । सनातनधर्म की पताका फहराने के लिये उठे पग दिखायी तो दिये
...पर आगे बढ़ नहीं सके । भारत भर में सनातनधर्मियों का धर्मांतरण होता रहा,
लड़कियों को कलमा पढ़ाया जाता रहा, लाखों लोग
मुसलमान बनते रहे ...सनातनधर्म की पताका फहराने वाले हाथ दूर-दूर तक कहीं दिखायी
नहीं दिये ।
मौलाना
कलीम संत नहीं है, बैरागी भी नहीं है किंतु इस्लाम का परचम दुनिया भर में फहराने के लिये
समर्पित है । “माया मरी न मन मरा, मर
मर गये शरीर | आशा तृष्णा ना मरी, कह
गये दास कबीर”॥ इसीलिये तो मौलाना कलीम गोमांस सेवन करते
हुये ...सांसारिक वैभव भोगते हुये सनातनी कुलीन परिवारों की लड़कियों को कलमा पढ़ाता
है और इस्लाम का विस्तार करता है । मौलाना को भी देह की नश्वरता पर विश्वास है
...उसका यही विश्वास युवाओं को फिदायीन बन जाने को प्रेरित करता है, इस्लाम के विस्तार के लिये नश्वर शरीर को विस्फोटकों से उड़ा देने के लिये
उत्साहित करता है ।
भारत
में रहने वाले सनातनी परिवार इस्लाम के विस्तार का हिस्सा बनते रहे हैं ...बनते जा
रहे हैं । भारत के कई मौलाना और कुछ नेता पूरी दुनिया को इस्लामिक मुल्क बनाने का
ऐलान करते हैं । ऐलान को छोड़िये ....भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की याचना ही
करने का साहस जुटा पाना भारत में एक अत्यंत दुष्कर कार्य माना जाता है । अजमेर
शरीफ़ में कुछ साल पहले हुये एक सुनियोजित यौनशोषण की दीर्घकालीन श्रंखला में कुलीन
सनातनी लड़कियाँ ही मौलानाओं की हवस का शिकार होती रही हैं । भारत भर में फैले
संतों के आश्रम गहन साधना में लीन बने रहे ...आज भी लीन हैं । यूँ यह भी पूछा जा
सकता है कि सनातनी परिवार की लड़कियों की रक्षा के दायित्व की अपेक्षा संतों से ही
क्यों, हिंदू समाज और प्रशासन पर क्यों नहीं ?
प्रयागराज
का महाकुम्भ मेला एक तरह से देशी-विदेशी संतों का महामेला हुआ करता है जहाँ हाई
प्रोफ़ाइल बाबाओं के आश्रमों की भव्यता आम आदमी को आश्चर्यचकित करती है । जहाँ आम
आदमी इन बाबाओं के दर्शन के लिये तरसता है वहीं राजनेताओं, व्यापारियों
और उच्चाधिकारियों के लिये उनके भव्य आश्रमों के द्वार सदा खुले रहते हैं । किसी
मंत्री की तरह जीवनयापन करने वाले इन बाबाओं को संत मानकर पूजे जाने की परम्परा है
। चार-चार गनर्स और बाउंसर्स से अहर्निश सुरक्षित रहने वाले इन मृत्युभीरु संतों
को मेरा मन संत मानने के लिये कभी तैयार नहीं होता और विद्रोह कर देता है । मैं इन
जटा-जूटधारी संतों को बाबा ही कहना चाहता हूँ । सच्चा संत तो कबीर है – “माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर । कर का मन का डारि दे मन का मनका फेर”॥
कबीर के
बाद कुछ और भी सच्चे संत हैं जो हिमालयन ग्लेशियर्स के पास के बुग्यालों में अपनी
भेड़ें, घोड़े या खच्चर चराते हुये दिखायी दिये हैं मुझे । लोग उन्हें बंजारा कहते हैं,
मैं उन्हें संत कहता हूँ ।
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