अभी-अभी
ब्रिक्स सम्मेलन हुआ, भारत के प्रधानमंत्री ने उसकी अध्यक्षता की । अन्य देशों की तरह रूस ने भी
तालिबान के रूप-स्वरूप और अफ़गानिस्तान की स्थिति पर चिंता व्यक्त की । चीन ने इस
प्रकरण पर चौकन्ने बने रहने की बात दोहरायी । ...और आज अभी-अभी रूस ने तालिबान
सरकार को मान्यता देने की घोषणा कर दी है जबकि चीन तो पहले से ही तैयार बैठा था ।
योरोपीय देश भी धीरे-धीरे अपनी केचुल उतारने लगे हैं, तालिबान
सरकार को मान्यता देने के लिये ज़र्मनी ने भी घोषणा कर दी है । एक-एक कर दुनिया भर
के सभ्य देश तालिबान के समर्थन में खुल कर सामने आने लगे हैं अर्थात “एक-एक कर
दुनिया भर के सभ्य देश असभ्यता को सुख-शांति, विकास
और आर्थिक समृद्धि के लिये आवश्यक मानने लगे हैं”।
दुनिया का आम आदमी हैरान है कि ये पढ़े-लिखे और इतने सभ्य लोग “इतने असभ्य” क्यों
होते हैं?
पिछली
बार तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले तीन देशों में पाकिस्तान के अतिरिक्त सऊदी
अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी सम्मिलित थे । इस सूची में चीन, कतर,
ईरान, तुर्की, रूस और
ज़र्मनी जैसे और भी कई नाम जुड़ते जा रहे हैं, सूची लम्बी होती
जा रही है । यदि आने वाले दो-चार दिनों में इस सूची में अमेरिका, ब्रिटेन और जापान के नाम भी सम्मिलित हो जायँ तो किसी को आश्चर्य नहीं
होना होना चाहिये । सभ्य लोगों के लिये बर्बरता अब वर्ज्य नहीं रही, शायद “सभ्यता” अब अव्यावहारिक जीवन मूल्य के रूप में स्वीकृत होकर हमारे
जीवन से निष्कासित होने जा रही है ।
उभरती
हुयी अर्थव्यवस्था वाले ब्रिक्स देशों - ब्राज़ील, रसिया, भारत, चीन, और दक्षिण अफ़्रीका की
विश्व व्यापार में संयुक्त भागीदारी पंद्रह प्रतिशत है । “उभरती हुयी
अर्थव्यवस्था” वाले देशों में चीन और रूस के नाम देखकर लगता है जैसे कि कलेवा
कर रहे हल जोतने वाले किसान के सामने पिज्जा और बर्गर फ़ैक्ट्री का मालिक आ कर खड़ा
हो गया हो । पता नहीं, शहर के दो गुण्डों को कविसम्मेलन में
आमंत्रित करने की विवशता क्या रही होगी!
..तो ये
उभरते हुये व्यापारी हैं जो दुनिया भर में अपनी व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ाने के
लिये समय-समय पर एक मंच पर आकर बैठकें करते हैं और अपने लाभ की कुछ योजनायें बनाते
हैं । अफ़गानिस्तान की धरती में ताँबा, सोना, पेट्रोलियम,
प्राकृतिक गैस, यूरेनियम, बॉक्साइट, कोयला, लोहा,
लीथियम, क्रोमियम, लेड,
ज़िंक, जेम-स्टोन, टैल्क,
सल्फर, ट्रैवर्टीन, जिप्सम
और मार्बल जैसी मूल्यवान सम्पदाओं का ख़ज़ाना है । पाकिस्तान की निगाहें अफगानिस्तान
के यूरेनियम पर हैं तो रूस और चीन की निगाहें अफगानिस्तान के लीथियम और अन्य
खनिजों पर जमी हुयी हैं । सारे ब्रिक्स देश लीथियम निकालने अफगानिस्तान नहीं जा
सकते, ओवम को फ़र्टीलाइज़ करने की दौड़ में सम्मिलित हर स्पर्म
एड़ी-चोटी का जोर लगाएगा लेकिन सफल होगा केवल एक ही । मुझे लगता है कि परस्पर
प्रतिस्पर्धी लोगों की बैठकों का उद्देश्य दूसरे प्रतिस्पर्धी का पत्ता साफ करना
होता है । प्रश्न यह है कि तालिबान की मौज़ूदगी में अफ़गानिस्तान से लीथियम का खजाना
कौन लूटेगा?
राष्ट्रपति
अशरफ़ गनी देश छोड़कर भाग गये । अफ़गानी कबीलों की दादुरवृत्ति का अर्थ है कौवों को
आमंत्रित करना । कौवे आ गये हैं, भेड़िए भी आ गये हैं, लीथियम की लूट मचने वाली है, तालिबान को पटाये बिना
यह सम्भव नहीं है । भाड़ में गयी सभ्यता, भाड़ में गयी
इंसानियत, भाड़ में गयी अफ़गानी औरतों की इज़्ज़त, भाड़ में गये मानवीय मूल्य । लीथियम और यूरेनियम है तो दम है, दम है तो व्यापार और दबंगई पर बादशाहत है । चलो लीथियम और यूरेनियम लूट
लें, चलो मनुष्यता और मानवीय मूल्यों को फाँसी पर लटका दें ।
जब असभ्यता चरम पर पहुँचेगी तब ही नए युग का आरंभ होगा ....
जवाब देंहटाएं