मुझे महाभारत के शांतिपर्व के एक श्लोक पर टिप्पणी के लिये कहा गया है । “गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि, न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” – (महाभारत, शांतिपर्व, 229/20)
मैं ईराक
और अफ़गानिस्तान से ही प्रारम्भ करता हूँ, जहाँ अमेरिकी सैनिक, तालिबान, आइसिस और आम नागरिकों के बीच हिंसा की
घटनायें पिछले कुछ दशकों से होती आ रही हैं । टीवी पर प्रसारित होने वाले समाचार
और दृश्य दर्शकों के मन में भय, उत्तेजना, दुःख और निराशा उत्पन्न करते हैं । इन्हीं दृश्यों में से कुछ दृश्य ऐसे
भी हैं जो करुणा और आशा भी उत्पन्न करते हैं । इन सभी दृश्यों, भावों और अनुभूतियों का कारण क्या है?
एक
दृश्य में अमेरिकी सैनिकों ने आइसिस के कुछ आतंकियों को पकड़ लिया है । आइसिस के
लोगों ने अमेरिकी सैनिकों को पकड़ा होता तो वे उनकी नृशंस हत्या कर देते किंतु
अमेरिकी सैनिकों ने ऐसा नहीं किया ...उन अमेरिकी सैनिकों ने, जिनके
हृदय में 9/11 की क्रूरष्ट घटना के चित्र सदा के लिये अंकित हो चुके हैं, पकड़े गये आतंकियों को अपनी बोतल से निकालकर पानी पिलाया । टीवी का दर्शक क्रूरता
और मनुष्यता के दोनों पक्षों से साक्षात्कार करता है ।
दूसरे दृश्य
में एक हजारा अफ़गानी स्त्री गाँव के बाहर तड़पते हुये एक घायल व्यक्ति को पानी भी देती
है और रोटी भी । घायल व्यक्ति तालिबान लड़ाका है जो हजारा अफगानियों को देखते ही गोली
मार देता है या स्त्रियों को देखते ही उन पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ता है । स्त्री
को नहीं पता कि जान बच जाने के बाद वह पुरुष उस स्त्री के साथ किस तरह का व्यवहार करेगा
। इस दृश्य में दर्शक स्त्री के उन उत्कृष्ट गुणों का साक्षात्कार करते हैं जो स्त्री
को आदरणीय और पूज्य बनाते हैं।
एक अन्य
दृश्य में तालिबान दुष्कृत्यों की कल्पना से भयभीत एक माँ अपनी दुधमुहीं बच्ची को काबुल
हवाई अड्डे की दीवाल पर खड़े अनजान विदेशी सैनिक की ओर उछाल देती है । माँ की आँखों
में आँसू हैं और हृदय जैसे बैठा जा रहा हो । संकट के उन क्षणों में उस माँ को विश्वास
है कि अनजान विदेशी सैनिक उसकी बच्ची को अपने देश ले जायेगा और अपनी बेटी की तरह पालेगा
।
हमें अपने जीवन में कई बार परस्पर विरोधी
भावों, घटनाओं और स्थितियों का सामना करने के लिये विवश होना पड़ता है । हम क्रूरता
का सामना करते हुये मनुष्यता की आशा में आगे बढ़ते जाते हैं । यह एक ध्रुव से दूसरे
ध्रुव की यात्रा है, यह मनुष्य की मनुष्यता की ओर यात्रा है ।
यह “तमसोमा ज्योतिर्गमय” का संकल्प है ।
“गुह्यं
ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि, न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” – (महाभारत, शांतिपर्व,
229/20)
मनुष्य तो
आपस में युद्ध करते हैं, एक-दूसरे के प्रति हिंसक और क्रूर होते हैं, स्वार्थ
के लिये विश्वासघात करते हैं तब मनुष्य के लिये श्रेष्ठ कौन है? स्वामिभक्त श्वान… या हल जोतने वाले बैल... या दूध देने
वाली गाय... या यात्रा और युद्ध में काम आने वाले हाथी-घोड़ा और ऊँट... या मनोरंजन करने
वाले गंधर्व... या वरदान देने वाले देव...???
रहस्य की
बात यह है कि इस सबके बाद भी “...न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” । अनेक दुर्गुणों
के बाद भी मनुष्य के लिए मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं है, यहाँ तक
कि ब्रह्म भी नहीं । सुरों, असुरों, दैत्यों,
दानवों और राक्षसों के पास अद्भुत शक्तियों के भंडार हैं, किंतु उनके पास वे शक्तियाँ नहीं हैं जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने के लिये आवश्यक
हैं । दूध की श्रेष्ठता उसके दुग्धत्व में ही है जो दूध के अतिरिक्त अन्यत्र असम्भव
है । अमृत की श्रेष्ठता उसके अमृतत्व में ही है जो अमृत के अतिरिक्त अन्यत्र अप्राप्य
है । विष की मारकता उसके विषत्व में ही है जो विष के अतिरिक्त अन्यत्र अप्राप्य है
। दूध हो या अमृत या फिर विष, किसी को किसी अन्य चीज से फ़ोर्टीफ़ाइड
नहीं किया जा सकता । मनुष्य के इष्ट के लिये मनुष्यता के गुणों से युक्त मनुष्य ही
चाहिये ...मनुष्य के इष्ट के लिये मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं ।
फिर प्रश्न
उठता है, कैसा मनुष्य? तालिबान और आइसिस के लड़ाके भी मनुष्य जैसे
ही दिखायी देते हैं । हम ऐसा मनुष्य कहाँ से खोज कर लायें जो वास्तव में मनुष्य हो...
जिसके अंदर मनुष्यता हो?
मनुष्य जैसे
दिखने वाले पढ़े-लिखे लोग भी निराश करते हैं, स्वयंभू सभ्य लोग भी निराश करते
हैं, वैभवसम्पन्न लोग भी निराश करते हैं, तब मनुष्यता वाला मनुष्य कहाँ से मिलेगा?
संस्कारात्
... संस्कार से मिलेगा ऐसा मनुष्य । संस्कार कहाँ से मिलेगा?
मूसलयुद्ध
करने वाले यदुवंशियों को संस्कार क्यों नहीं मिल सका? देवकी
के भाई कंस को संस्कार क्यों नहीं मिल सका? विभीषण के भाई दशग्रीव
को संस्कार क्यों नहीं मिल सका?
संस्कार
भी एक यात्रा है, आत्मचेतना की यात्रा, पूर्वजन्मकृत कर्मफलों की यात्रा
। हमारे संस्कारों के लिये हम ही उत्तरदायी हैं । बात फिर कर्मयोग पर आकर ठहर जाती
है... उन लोगों पर आ कर ठहर जाती है जो अपने समाज और राष्ट्र के लिये इज़्रेल की तरह
कर्मयोग के लिये समर्पित और निष्ठावान होते हैं ।
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