शराब हराम है यहाँ ख़ुदा के बंदों के लिये, मगर जन्नत में भरपूर उपलब्ध है और परोसी जाती है ख़ुदा के बंदों के लिये । अंगूर की शराब की नदियाँ और नहरें बहती हैं वहाँ । औरतों के लिये पर्दे में रहना वाज़िब है यहाँ, मगर जन्नत में वे बहुत झीने लिबास में घूमती हैं ...अपनी ख़ूबसरती नुमाया करती हुयी । एक अफ़गानी लड़की ने बताया है कि औरतों को बुर्कों में कैद करके रखने वाले तालिबान को किसी औरत का ज़िस्म चाहिये होता है फिर चाहे वह बच्ची का हो या तरुणी का, ज़िंदा औरत का हो या फिर मुर्दा का, …ज़िस्म में कोई और शर्त नहीं होती सिवाय इसके कि वह निहायत बुढ्ढी न हो ।
धरती की
ज़िंदगी जन्नत की ज़िंदगी से इतनी उलट क्यों है? क्या इस्लाम के कायदे जन्नत
में मान्य नहीं, या फिर वहाँ के कायदे यहाँ से कुछ अलग हैं?
बस, कुछ अज़ीब सा लगा तो पूछ दिया, इरादों पे शक न करना मेरे!
हर मज़हब
की समाज व्यवस्था उनकी अपनी ज़रूरतों और मान्यताओं के अनुसार तय की जाती है । उसूल
है कि किसी को इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये (इसमें यह शर्त और जोड़ी जानी चाहिये
कि – “जब तक कि इससे दूसरे लोग नकारात्मक रूप से प्रभावित न हो रहे हों”)।
इस्लाम
की दुहाई देने वाले कुछ संगठनों को फिदायीन की ज़रूरत होती है जिसका संदेश आम आदमी
तक उनकी मज़हबी मान्यताओं को पुष्ट करने के रूप में पहुँचता है । फिदायीन हमला उनकी
ज़रूरत हो सकती है लेकिन उसके प्रभाव से उन लोगों को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता
है जिनका कोई ग़ुनाह नहीं होता सिवाय इसके कि वे उनके द्वारा घोषित काफ़िर होने के
अपराधी होते हैं । कोई अपनी मर्ज़ी से काफ़िर पैदा नहीं होता, उनकी तरह
इन्हें भी अपने धर्म में आस्था होती है फिर भी वे उनकी ज़िद के अनुसार काफ़िर होने के
अपराधी होते हैं । हिंदू किसी की स्वतंत्रता के हरण को मान्यता नहीं देते, वे औरतों पर ज़ुल्म-ओ-सितम को जायज़ नहीं ठहराते, वे
कम उम्र लड़कियों से बलात यौनदुराचार को अपना हक मानने की ज़िद को जायज़ नहीं ठहराते,
वे किसी की लूटी हुयी सम्पत्ति को माल-ए-गनीमत मानते हुये उसे
धार्मिक कृत्य मानने का समर्थन नहीं करते ....फिर भी वे काफ़िर कहलाते हैं और उनका कत्ल
कर देना ख़ुदा की शान में किया हुआ सबब माना जाता है । कुल मिलाकर जो ग़ैरमुस्लिम हैं
वे उनकी जीवनशैली और मान्यताओं से बुरी तरह प्रभावित होते हैं इसलिये आज हमें भी फ़िदायीन
की फ़िलॉसफ़ी पर चर्चा के लिये बाध्य होना पड़ रहा है ।
मैं एक ब्राह्मण
युवक को जानता हूँ जिसने एक मुस्लिम लड़की से निकाह करने के लिये इस्लाम कुबूल कर
लिया है, वह डॉक्टर है और अब इस्लामी मान्यताओं का समर्थक है । उसने धर्म बदलने के
साथ ही अपनी मान्यताएँ, अपने विश्वास, अपने
धार्मिक कर्मकाण्ड और अपने पूर्वज भी बदल लिये हैं । अब उसके नये (एडॉप्टेड)
पूर्वज अरबी हो गये हैं जो कि वास्तव में नहीं है । अब उसके वास्तविक पूर्वज उसके
शत्रु हो गये हैं जो कि वास्तव में नहीं हैं । अब उसे बचपन में याद की हुयी
संस्कृत में लिखी स्तुतियाँ पाखण्ड लगने लगी हैं । अब वह “या देवी सर्वभूतेषु
शक्तिरूपेण संस्थिता...” को फ़िज़िक्स, कैमिस्ट्री और मेडिकल
साइंस के परिप्रेक्ष्य में देखता है तो उसे यह सब निहायत बेवकूफ़ाना लगता है । अब
वह पहले की तरह हिंदी नहीं बल्कि उर्दू बोलने लगा है और बात-बात में इंशाअल्ला और
सुभान अल्लाह या फिर अल्हम्दुलिल्लाह कहने लगा है (निकाह से पहले, शायद यह सब उसे साइंटिफ़िक लगा होगा) । बहरहाल, अब वह
भारत में शरीया कानून चाहता है और इसके लिये वह सब कुछ करने के लिये तैयार है जो
एक मुसलमान को करने के लिये आदेशित किया जाता है । आदेश देने वाला कोई मौलवी होता है
जिसकी तालीम से ज़्यादा तालीम एक डॉक्टर की होती है ...ऐसा मैं नहीं कहता, बल्कि आम लोगों द्वारा माना जाता है ।
फ़िलॉसफ़ी
ऑफ़ फिदायीन समझने के लिये हमें इन तमाम घटनाओं को भी ध्यान में रखना होगा । हमें
यह भी ध्यान रखना होगा कि एक महिला डॉक्टर, जो कि एक सरकारी अस्पताल में गायनेकोलॉज़िस्ट
है, सरकारी प्रिस्क्रिप्शन पर अपने हिंदू मरीज़ों को रोजे और अल्लाह
में ईमान लाने की बात लिख कर देती है (कुछ वर्षों तक हुयी शिकायतों के बाद शायद उस
पर कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की गयी है) । हम यह नहीं कहेंगे कि अनुशासनात्मक कार्यवाही
और सालों चलने वाली जाँचों के ढकोसले पर्याप्त है या नहीं बल्कि यह कहना चाहेंगे
कि एक चिकित्सक की मानसिकता इस्लाम को लेकर कितनी वैज्ञानिक हो सकती है!
“अंगूर
की शराब की नहरें” जो धरती पर नहीं होतीं, जन्नत में हैं, उनके चित्र तहरीक-ए-तालिबान-पाकिस्तान ने नॉर्थ वज़ीरिस्तान में अपने फिदायीन
सेंटर में नुमाया कर दिये हैं । फिदायीन सेंटर
में जन्नत के नज़ारे की अगली नुमाइश में बहत्तर हूरों के चित्र लगाये गये हैं,
जो वास्तव में बम्बइया फ़िल्म अभिनेत्रियों के चित्र हैं और जो हिंदू
होने की वज़ह से काफ़िर भी हैं । माना जाता है कि “काफ़िर की औरतें माल-ए-गनीमत” होती
हैं और उन पर ख़ुदा के बंदों का पूरा हक हुआ करता है । ज़िंदा लोगों की तस्वीर लेना या
नुमाया करना इस्लाम में हराम है, लेकिन काफ़िर औरतों की तस्वीरों
की नुमाइश जायज़ है मानी जाती है । यह मानना और न मानना कहाँ से और कौन तय करता है,
उसका आधार क्या है ...किसी को नहीं पता । मुझे उस ब्राह्मण युवक की याद
आ रही है जो डॉक्टर है और अब मुसलमान भी है । यदि वह गज़वा-ए-हिंद के लिये फिदायीन बन
जाय तो वायदे के मुताबिक उसे भी अल्लाह के हाथों से अंगूर की शराब की नहर में से जाम
पर जाम पीने को मिलेंगे और ख़ूबसूरत बहत्तर हूरें भी मिलेंगी जिनके लिबास एकदम पारदर्शी
हैं ...और जिनसे उनके ज़िस्म का वह सब कुछ नुमाया होता रहता है जिसकी इस्लाम में इजाज़त
नहीं हुआ करती । ओफ़्फ़ ! ऊपर वाले ने धरती, जहन्नुम और जन्नत के
डिपार्टमेंट्स में इतना ज़मीं-आसमाँ का फ़र्क क्यों किया है?
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