सोमवार, 13 सितंबर 2021

व्यावहारिक हिंदी का स्वरूप एवं उसकी स्वीकार्यता

         पूर्व में विदेशी शासन और फिर वैश्वीकरण के साथ आये तकनीक, व्यापार, विज्ञान, राजकीय प्रशासन और न्याय विषयक विदेशी शब्दों की बाहुल्यता से भारतीय भाषाओं के कलेवर और उनके उच्चारण में परिवर्तन होता रहा है । भाषा की एक स्वाभाविक गति होती है जो तत्कालीन स्थितियों, आवश्यकताओं और प्रवाह की सुगमता से प्रभावित होती है । भाषा को जीवित रहने के लिये समावेशी होना होता है, किंतु ध्यान यह भी रखना है कि भाषा का पूरी तरह रूपांतरण न हो जाय अन्यथा एक भाषा दूसरी भाषा को पूरी तरह निगल जायेगी ।

दैनिक व्यवहार में हिन्दी के प्रचलित स्वरूप ने हिन्दी के अस्तित्व के सामने आज कई तरह की चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं । केवल हिन्दी दिवस के ही दिन इस तरह के चिंतन और मंथन करने की परम्परा छोड़कर हमें सतत सजग और प्रयत्नशील होना होगा । भाषा हो या जीवन, उसके अस्तित्व की रक्षा और जीवंतता के लिये सतत परिमार्जन और चिंतन आवश्यक है ।

हिन्दी के उपयोग को लेकर शिक्षित लोगों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उनमें भाषा का स्तर, अमानकता, पर्यायवाची शब्द, नवीन शब्द निर्माण ... आदि प्रमुख हैं जिनका समाधान विद्वत्परिषद द्वारा प्रशिक्षणों के माध्यम से करने की अपेक्षा की जाती है । वास्तव में देखा जाय तो ये समस्याएँ उत्पन्न ही इसलिए हुई हैं कि हम मानक हिन्दी और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी से दूर होते चले गये और इस कारण उत्पन्न हुयी रिक्तता को भरने के लिये विदेशी भाषा के शब्दों को, बुभुक्ष की तरह अपनी भाषा में स्वीकार करते चले गये । आधुनिक जीवन और आजीविका के लिये हम अपने घर और गाँव से ही दूर नहीं चले गये बल्कि क्षेत्रीय लोकबोलियों से भी दूर चले गये । किसी भी परिष्कृत भाषा को भाषायी प्राणशक्ति क्षेत्रीय बोलियों से प्राप्त होती है । लोक वह क्षेत्र है जहाँ बोलियों का प्रवाह होता है, नये शब्द प्रचलन में आते हैं और परिष्कृत भाषा साँस ले पाती है । हमें उन भोजपुरीभाषियों और पंजाबियों का ऋणी होना चाहिये जिन्होंने मारीशस, सूरीनाम और कनाडा में रहकर भी अपनी मातृ बोलियों को जीवित बनाये रखा । 

दैनिक जीवन में हिन्दी के वर्तमान स्वरूप ने हिन्दी भाषियों के सामने जो चुनौतियाँ खड़ी की हैं उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार किये जाने की आवश्यकता है, जैसे  १- संचार माध्यमों में हिन्दी का अशुद्ध उच्चारण, यथा – तरँह, हाँथ, साँथ, हाँथी, कौंवाँ, आध्यात्म आदि । संचार माध्यमों का अनुसरण करते हुये बच्चों के साथ-साथ बड़े भी इसी तरह का त्रुटिपूर्ण उच्चारण करने लगे हैं । संचार के इतने बड़े माध्यमों को व्याकरण की मर्यादाओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिये । २- दूरभाष के विभिन्न माध्यमों में लिखित वार्तालाप की भाषा तो हिन्दी या क्षेत्रीय बोली ही होती है किंतु लिपि रोमन हो गयी है, इसके दुष्परिणाम अभी से देखने में आने लगे हैं । मैं इसे भाषा के प्रति भ्रष्ट आचरण मानता हूँ, यह एक बहुत ही गम्भीर विषय है जिस पर गम्भीरता से चिंतन कर परिष्कार किये जाने की आवश्यकता है । ३- विद्यालयों/महाविद्यालयों में हिन्दी के व्यवहार और कलेवर को इतना तरल और समावेशी बना दिया गया है कि उसने हिंग्लिश का रूप धारण कर लिया है जिससे हिन्दी का मूलस्वरूप ही समाप्त हो गया है । भाषा के प्रवाह के लिये लचीलापन होना चाहिये किंतु इतना भी नहीं कि भाषा अपना मौलिक स्वरूप ही खो दे । हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि रूस, चीन, फ़्रांस, ज़र्मनी आदि देशों में चिकित्सा और अभियांत्रिकी जैसे विषयों का अध्ययन-अध्यापन उनकी अपनी भाषाओं और लिपियों के माध्यम से ही किया जा रहा है । ४- क्षेत्रीय स्तर पर साहित्यिक हिन्दी के स्वरूप ने मुझे बहुत निराश किया है । हिन्दी के अधिकांश क्षेत्रीय साहित्यकार अभी तक खड़ी हिन्दी, क्षेत्रीय शब्द और व्याकरण के बीच तालमेल बिठा सकने में सफल नहीं हो सके हैं जिसके दुष्परिणाम उनके लेखन में स्पष्ट दिखायी देते हैं । यही कारण है कि मैला आँचल के बाद अब हमें इस तरह की नयी कृतियाँ प्रायः दिखायी ही नहीं देतीं । ५- परिष्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के व्यावहारिक स्वरूप के प्रति साहित्यकारों में अरुचि चिंता का विषय है । मैं उनके बहुत से किंतु-परंतु का कोई उत्तर देने से पहले आग्रह करूँगा कि वे वाराणसी के विश्वविद्यालयों में होने वाले कार्यक्रमों में कभी-कभी सम्मिलित होने की कृपा अवश्य करें । ६- मुझे चीनी भाषा के “नी हाओ” और “शेशे” के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं आता किंतु चीनियों को हिन्दी भाषा के बहुत से शब्द आते हैं । यही हाल मंगोलिया, ताज़िकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, अफ़गानिस्तान, रूस, ईरान और दक्षिण अफ़्रीका आदि देशों का है । हमें अफ़गानी बोलियाँ नहीं आतीं किंतु अधिकांश अफ़गानी हिन्दी अच्छी तरह बोल लेते हैं । निश्चित ही इसका सम्पूर्ण श्रेय हमारी फ़िल्मों और सुगम संगीत को जाता है । फिर भी मैं कहूँगा कि हिन्दी के स्तर को लेकर अधिकांश फ़िल्मों और धारावाहिकों ने गम्भीरता नहीं दिखायी है । गन्ने का रस अच्छा है किंतु उसे अमृत कहकर नहीं परोसा जा सकता । जब कोई अहिन्दीभाषी पहली बार हिन्दी सुनता है तो उसकी ग्रहणशीलता अपने उच्च स्तर पर होती है अतः हिन्दी का प्रथम स्वरूप, वह जैसा भी हो, अधिक प्रभावी और स्थायी होता है।

कई बार हमें विदेशी ध्वनियों के यथावत उच्चारण के आग्रह से उत्पन्न कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है । हमसे अपेक्षा की जाती है कि अरबी-फ़ारसी के नुक्तों और चीनी बोलियों की ध्वनियों को हिन्दी में समाहित करने के लिये हमें देवनागरी में लिपिकीय और सांकेतिक परिवर्तन करने चाहिये । मुझे ऐसा कोई आग्रह उचित नहीं लगता । हर भाषा में अन्य भाषाओं की ध्वनियों और संकेतों का होना आवश्यक नहीं है । यदि हम ध्वनियों को अपनाना चाहते हैं तो हमें भाषा के शुद्ध स्वरूप को ही क्यों नहीं अपना लेना चाहिये! हिन्दी की मौलिकता को नष्ट करने की क्या आवश्यकता? विदेशी ध्वनियों की स्वीकार्यता लिपिकीय स्तर पर देवनागरी में मुझे स्वीकार्य नहीं है । यूँ भी, बोली और भाषा की प्रकृतियाँ भौगोलिक और पारम्परिक आवश्यकताओं से प्रभावित होती हैं । देवनागरी लिपि में कोई परिवर्तन किया जाय उससे अच्छा होगा कि ध्वनिप्रेमी चीनी, अरबी या फ़ारसी का प्रयोग उनके शुद्ध और सम्पूर्ण रूप में किया करें ।

चुनौतियों का सामना – वर्तमान स्थितियों में हमारे सामने हिन्दी की स्वीकार्यता को लेकर क्या-क्या समस्याएँ हैं, इनका चिन्हांकन करने के पश्चात हमें उनके निराकरण की दिशा में आगे बढ़ना होगा । कार्यालयीन उपयोग में हिन्दी की वर्तमान स्थिति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता । हमें अमानक हिन्दी से मानक हिन्दी की ओर बढ़ना होगा, लिखने एवं बोलने के साथ-साथ तकनीकी दक्षता का संकल्प लेना होगा, व्यावहारिक स्वीकार्यता के लिये विदेशी शब्दों के चयन में तरलता को स्वीकार करने से पहले व्याकरण की दृढ़ता के प्रति संकल्पित होना होगा (यथा डॉक्टरों, टीचरों और स्कूलों नहीं बल्कि डॉक्टर्स, टीचर्स और स्कूल्स) । शब्द लेना अनुचित नहीं किंतु व्याकरण का परित्याग अनुचित है । हमें हिन्दी की समृद्धता के लिये व्यावहारिक हिंदी में शब्दों की प्रासंगिकता, लोकबोली एवं लोकव्यवहार के शब्दों के समावेश की युक्तियुक्त शिथिलता के साथ अन्य भाषा के स्थानापन्न शब्दों के समावेश की स्वीकार्यता को स्थान देना होगा; दुरूहता एवं क्लिष्टताजन्य नकारात्मकता से मुक्ति हेतु सरलता और सहजता के साथ भाषायी समृद्धता के लिये उत्तरोत्तर प्रतिस्पर्धात्मक प्रयास करने होंगे; निज भाषा के स्वाभिमान का वैचारिक जागरण करना होगा, और अंतिम बात यह कि हम अपने दैनिक व्यवहार में हिन्दी को आत्मसात कर सकें तो हिन्दी की यही सबसे बड़ी साधना होगी ।

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