आ’म टाकिंग अबाउट डेथ ऑफ़ कॉमन पीपल । ऑव्वियसली, इट इज़ अ रियल डेथ, दैट् इज़ ॐ शांतिः, नो लाइफ़ आफ़्टर डेथ व्हिच इज़ मोर पेनफ़ुल । डेथ मस्ट बी इंज्वायड ऐज़ इट इज़ ।
विश्वास
किया जाता है कि मृत्यु के बाद मृतक का स्मारक बनाने और उसके नाम पर विभिन्न स्थानों-मार्गों
या संस्थानों का नामकरण करना मृतक के नाम को अमर बना देता है ।
मृतक के
प्रति जीवित रहे सांसारिकों की यह लालसा जितनी हठी है उतनी ही अद्भुत भी । विश्व
के महान लोग अपनी मृत्यु के बाद भी अमर बने रहते हैं । मृतक के नाम से कुछ लोगों
द्वारा एक नयी सांसारिक यात्रा प्रारभ कर दी जाती है जिसके बारे में बेचारे मृतक
को कभी कुछ पता भी नहीं चलता ।
मृत्योपरांत
प्रारम्भ की गयी नवीन सांसारिक यात्रा भी सुख-दुःख, खण्डन-मण्डन, आक्रोश-श्रद्धा आदि भावों से परिपूर्ण रहती है । मैं हैरान हूँ कि लोग
मृत्यु को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहते! मृत्यु के बाद भी मृतक को ऐसे छद्म
उपायों से जीवित रखने का प्रयास, क्या ईश्वरीय निर्णय को
अस्वीकार करना नहीं है?
महान
लोगों की प्रतिमाओं पर फूल-मालायें चढ़ायी जाती हैं, कबूतर दीर्घशंका करते
हैं, समर्थक उनके नाम पर योजनायें बनाते हैं...आंदोलन करते
हैं, विरोधियों को अवसर मिलता है तो मूर्ति को ही तोड़ देते
हैं । मृतक के नाम पर कोई संस्था हो तो अगली सरकार उस नाम को बदल देती है, विरोधी मृतक के नाम पर कालिख पोत देते हैं ...।
बेचारा
मृतक! मृत्यु के बाद भी चैन नहीं । मृत्यु के पश्चात की शांति का कहीं अता-पता
नहीं ...फिर मरने का लाभ ही क्या हुआ! ...इससे तो अच्छा था जीवित ही बना रहता, कम से
कम उसे पता तो रहता कि उसके नाम पर हो क्या-क्या रहा है ।
अच्छा हुआ कि मैं एक आम आदमी हूँ, चैन
से मर सकता हूँ, मरने के बाद भी मरा हुआ ही रहूँगा, कोई कबूतर मेरी प्रतिमा पर दीर्घशंका निवारण नहीं करेगा, कोई मेरी प्रतिमा के गले में जूते-चप्पलों की माला नहीं डालेगा, कोई विरोधी मेरी प्रतिमा को खण्डित नहीं करेगा, कोई
मेरे नाम से चल रहे विश्वविद्यालय के सूचना पटल पर लिखे मेरे नाम को कालिख से नहीं
पोतेगा । सही अर्थों में मैं अपनी मृत्यु का सच्चा सुख प्राप्त कर सकूँगा ।
कबीर की
कामना मुझे सदा याद रहती है – “साईं इतना दीजिये, जा में कुटु समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय”॥ सम्पत्ति यदि
आवश्यकता से अधिक हो तो सुख-शांति के लिये संकट खड़ा होना निश्चित है । उद्योग
घरानों से लेकर मंदिर और चर्च जैसे धार्मिक केंद्र भी इस संकट से मुक्त नहीं हैं ।
मृत्यु
एक यात्रा है जिसे उत्साहपूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिये । लगभग सभी समाजों में
मृतक के प्रति शोक प्रकट किये जाने की परम्परा है जो मृतक की अनंतयात्रा के इस चरण
को स्वीकार न किये जाने की प्रतीक है । मैं अपनी अंतिम लौकिक यात्रा के बारे में गम्भीरता
से विचार करता हूँ । मृत्यु के बाद लोग "ॐ शांतिः शांतिः शांतिः" का उच्चारण
करते अवश्य हैं किंतु उसके तत्व को स्वीकार नहीं कर पाते, मैं अपनी
मृत्यु को उत्साहपूर्वक स्वीकार करना चाहता हूँ, और इसलिये किसी
ऐसे स्थान में जाकर मरना चाहता हूँ जहाँ केवल मैं होऊँ और मेरे एवं ईश्वर के बीच
में कोई और न हो ... कोई बाधा न हो । मैं नहीं चाहता कि किसी को मेरी मृत्यु के
बारे में पता चले, मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी मृत्यु पर
झूठी संवेदना व्यक्त करे, मैं नहीं चाहता कि मृत्यु के बाद
भी मुझे बलात् जीवित रखने का छद्म कृत्य किया जाय । मैं सचमुच शांति से मरना चाहता
हूँ ।
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