बुधवार, 29 सितंबर 2021

न्यूक्लियर बम से आगे

लास एन्जेलेस की एक्शन फ़िल्मों में पिस्तौल से निकली अदृश्य किरणों का कमाल आपने देखा होगा । कंक्रीट को भेद कर अपने लक्ष्य तक पहुँचने जाने वाली ये किरणें किसी भी डिवाइस को तत्काल निष्क्रिय कर सकती हैं या किसी को जला कर ख़ाक कर सकती हैं । बहुत से लोग इसे हॉलीवुड की कल्पना मानते होंगे किंतु आपको जानकर हैरानी होगी कि ऐसी पिस्तौलें काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविक होती हैं । इन पिस्तौलों को IEMI (Intentional electromagnetic interference) कहते हैं जो वास्तव में EMP (Electromagnetic pulse) का ही छोटा रूप होती हैं । जहाँ EMP का प्रयोग बहुत बड़े स्तर पर और अधिक विध्वंस के लिये किया जाता है वहीं IEMI का प्रयोग छोटे स्तर पर किंतु विनाशकारी अपराधों के लिये किया जाता है ।

कुछ अपराधियों द्वारा IEMI का प्रयोग धमकी देकर पैसे कमाने के लिये भी किया जा सकता है । इसे कम्प्यूटर वायरस वाले उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है । कम्प्यूटर वायरस का प्रयोग एण्टीवायरस डिवाइस बेचकर पैसे कमाने के लिये संगठित साइवर विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है । कुछ लोग इसे व्हाइट कॉलर क्राइम मानते हैं जिसमें दर्द पैदा ही इसलिये किया जाता है ताकि उस दर्द की दवा बेच कर पैसे कमाये जा सकें । कम्प्यूटर वायरस बनाकर किसी डिवाइस को क्षति पहुँचाना एक साइबर क्राइम है किंतु एण्टी वायरस बनाकर बेचना उस अपराध को सुव्यवस्थित बनाये रखने का अपराध होते हुये भी अपराध नहीं माना जाता । ऐसे अपराध आधुनिक वैज्ञानिक युग के कॉम्प्लीकेशंस हैं जो एक दिन इस सभ्यता को समाप्त कर देने के लिये पूरी तरह तैयार बैठे हैं ।

पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया जैसे देशों ने भी घातक न्यूक्लियर अस्त्र बना लिये हैं किंतु ग़रीबी समाप्त कर सकने में असफल रही दुनिया भर की सरकारें बेशुमार पैसा बर्बाद करके एक से एक घातक और विनाशकारी अस्त्र बनाने में रात-दिन एक किये दे रही हैं । इस प्रतिस्पर्धा का अंत इस सभ्यता के अंत के साथ होना तय है । तकनीकी ज्ञान यदि कुपात्रों के हाथ लग जाय तो उसका दुरुपयोग होना निश्चित है । इसीलिये मनुस्मृतिकार ने ज्ञान को कुपात्रों से बचाकर रखने का सुझाव दिया था । पश्चिमी सभ्यता ने तकनीकी ज्ञान को कुपात्रों से बचाने के स्थान पर उसे हर किसी के लिये उपलब्ध कराने की परम्परा डाली जिसका परिणाम आज हम देख रहे हैं । सुना है कि अफगानिस्तान में तालिबान के हाथ विध्वंसक अस्त्र लग चुके हैं ।

आज तो बहुत से देशों के पास न्यूक्लियर अस्त्र हो गये हैं जिससे दुनिया महाविध्वंसकारी युद्ध के कगार पर आकर खड़ी हो गयी है । नये-नये विध्वंसकारी अस्त्रों को खोजने की प्रतिस्पर्धा अभी थमी नहीं है ।

जैव-अस्त्र “कोरोना” की विनाशक क्षमता से दुनिया अभी जूझ ही रही है । महाविनाशकारी EMP Missiles और छोटे स्तर पर विनाशकारी IEMI Guns की उपलब्धता के बाद अब परमाणु बमों की उतनी संहारिकता नहीं रह गयी है । परमाणु अस्त्र तो अब केवल धौंस और भय उत्पन्न करने के साधन भर रह गये हैं ।

EMP और High altitude EMP Missiles से दागी जाने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक पल्स से किसी विस्तृत भूभाग में सुपर इनर्ज़ेटिक लाइटनिंग उत्पन्न की जा सकती है जो अपने प्रभाव क्षेत्र में कार्यरत हर तरह के आधुनिक उपकरणों को तत्काल निष्क्रिय कर सकती है । इसका प्रभाव एक तरह से मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिकल पैरालिसिस के रूप में परिणमित होता है जिसके कारण धरती के एक बहुत बड़े भूभाग की गतिविधियों को पूरी तरह निष्क्रिय करके शत्रु देश को लाचार बनाया जा सकता है ।

EMP या HEMP मिसाइल से किये गये मात्र एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक विस्फोट से किसी भी महाद्वीप की National security, Data centers, Telecommunications, Green energy power, Heating companies, Transportation sector, Bank and other financial services, Security systems, Electricity distribution, Infrastructure, Hospitals and public health facilities, Oil and Gas industries, Water treatment facilities, and all other technology driven instances आदि प्रणालियों को पलक झपकते ही निष्क्रिय किया जा सकता है । इलेक्ट्रोमैग्नेटिक पल्स के मारक क्षेत्र की भयावहता दुष्ट वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों को छोड़कर हर किसी की आत्मा को झकझोरती है । यदि मास्को के स्ट्रेटोस्फ़ेयर में एक विस्फोट किया जाय तो उससे उत्पन्न NEMP क्षेत्र लंदन सहित पूरे पश्चिमी योरोप में प्रभावी होगा और इस विशाल क्षेत्र की सम्पूर्ण इलेक्ट्रॉनिक गतिविधियों को तत्काल नष्ट कर देगा । जरा कल्पना कीजिये कि यदि चीन, उत्तरी कोरिया, तुर्की या तालिबान में से किसी ने भी ऐसा कोई विस्फोट कर दिया तो स्मार्ट इलेक्ट्रिक ग्रिड्स, वर्चुअल कम्यूनिकेशन, ड्रायवरलेस कार, आई ट्रेकिंग टेक्नोलॉज़ी, हाई एफ़ीसिएंसी फ़ोटोवोल्टाइक सेल, ग्रीन इनर्ज़ी इलेक्ट्रिकल पॉवर कन्वर्टर, वायरलेस बियरेबल टेक, ग़्रेफ़ीन, आयन थ्रस्टर इनर्ज़ी आदि की क्या उपयोगिता रह जायेगी! बैंक में डाटा नष्ट हो जाने से आपके अकाउण्ट में जमा पैसों का क्या होगा! एटीएम काम करना बंद कर देंगे तो दैनिक उपयोग की चीजें ख़रीदने के लिये पैसे कहाँ से आयेंगे! शेयर मार्केट में लगे आपके और राकेश झुनझुनवाला के पैसों का क्या होगा!


                        इलेक्ट्रोमैग्नेटिक ब्लास्ट से ठ्प्प पड़ जायेंगी सारी प्रणालियाँ और उपकरण 

दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान, उत्त कोरिया और ईरान जैसे देशों ने भी EMP Missiles बना लिये हैं ।

सनकी के पास भी है ई.एम.पी. मिसाइल 

सबको पता है कि आज हर तरह  अत्याधुनिक हथियार आतंकी संगठनों को उपलब्ध हो चुके हैं । हाईटेक अपराधियों के लिये स्माल फ़्रीक्वेंसी बैण्ड में स्तेमाल की जाने वाली IEMI Guns जैसी डिवाइसेज़ का जुगाड़ कर लेना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । अपने नागरिकों को दो सौ रुपये प्रति किलो टमाटर बेचने वाला पाकिस्तान भी जब चाहे तब IEMI Guns बना सकता है । मात्र 1000 US डॉलर से भी कम खर्च करके इन गन्स का निर्माण किया जा सकना सम्भव है जिनका दुरुपयोग आतंकी हमलों के अतिरिक्त इलेक्ट्रॉनिक वारफ़ेयर, स्मार्ट बर्ग्लर्स और हैकर्स द्वारा भी किये जाने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता ।

दूसरी ओर हॉलैण्ड जैसे देशों ने एंटीवायरस की तर्ज पर EMP युद्ध का सामना करने के लिये EMP protection सिस्टम भी तैयार कर लिया है । यह एक “फ़ैराडे-केज़” है जो एक शील्डिंग सिस्टम की तरह काम करता है और EMP missile के विनाशकारी प्रभावों को निष्क्रिय कर देता है । किंतु सवाल यही है कि इस तरह दौड़ चूहा दौड़ बिल्ली की प्रतियोगिता कब तक चलती रहेगी? दुनिया भूख और बीमारियों का सामना तो कर लेगी किंतु इस वैचारिक संकट का सामना कैसे कर सकेगी!

छोड़िये! धंधे-पानी की बात करते हैं । एक फ़िल्म बनाते हैं । पैसा आप लगाइये, थीम मेरे पास है – दो भाई हैं, एक बम बेचता है, दूसरा बम से बचने का उपाय बेचता है ...कुछ लोगों को पेट भरने के लिये रोटी नहीं मिलती, कुछ लोग मौत के व्यापार में अरबों कमा रहे होते हैं । लास एंजेलेस की भव्य इमारतों के बाहर ...चौड़ी, ख़ूबसूरत सड़कों पर “ख़ूबसूरत जरी वाली साड़ी पर पैबंद की तरह” हजारों होमलेस लोगों का बसेरा है । एक लॉन्ग शॉट चाँद के धब्बों का भी लेना होगा । इसके तुरंत बाद कैमरा उतर कर वहाँ फ़ोकस करेगा जहाँ कैलीफ़ोर्निया की एक किशोरी सड़क के किनारे रखे कचरे के डब्बे से खाने की कुछ चीजें खोज रही है । कचरे के ढेर के पास कुछ लोग ड्रग्स की पिन्नक में “तनिक खड़े से, तनिक बैठे से, तनिक लेटे से और तनिक झुके से” की सम्मिलित मुद्रा में पिछले कई घण्टे से स्थिर हैं । शायद वे “तनिक से जीवित और तनिक से मृत” की सम्मिलित स्थिति में अवस्थित हैं ।

दुनिया इसी तरह चलेगी ... कुछ समय और ...फिर एक दिन सब कुछ समाप्त हो जायेगा । डिवाइस और एण्टी डिवाइस की दौड़ भी समाप्त हो जायेगी । दर्द बेचने वाला भी समाप्त हो जायेगा और दर्द की दवा बेचने वाला भी । मैं अरविंद केजरीवाल से भिन्न किस्म वाला एक “आम आदमी” हूँ ..यानी “आतंकित एवं अनिवार्य ग्राहकों” की श्रेणी में आता हूँ इसलिये हिमालय जाने से पहले मुझे यह फ़िल्म पूरी करनी ही है ।    

चलो ग़रीबी पर एक फ़िल्म बनाकर हम भी करोड़ों कमा लें । हॉलैण्ड ने ई.एम.पी. रैडिएशन से बचने के उपाय बेचने शुरू कर दिये हैं 


रविवार, 26 सितंबर 2021

अरुणांचल में भी चीनी बसाहट

लाल रंग से चिन्हित भारतीय क्षेत्र में बसाया गया है एक और नया चीनी गाँव 

हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के बाद अब अरुणांचल प्रदेश में भी चीनी बसाहट का दूरदर्शी अभियान प्रारम्भ हो चुका है जिसका प्रतिकार करने के लिये भारत को कोई ठोस कदम उठाना होगा ।

छीन-झपट और गुण्डई में विश्वास रखने वाले चीन का सामाजिक और राजनीतिक इतिहास उथल-पुथल से भरा रहा है । चीन में प्रचलित कन्फ़्यूसियनिज़्म, लीगलिज़्म और ताओइज़्म जैसे चीनी दर्शनों का उदय भी तब हुआ जब चीन में राजनीतिक अस्थिरता और युद्धों से जनजीवन प्रभावित हो रहा था । इसीलिये चीन में Spring and Autumn period एवं Warring States period को “संकट में दार्शनिक चिंतन का काल” मानना उचित होगा । चीन के चरित्र को देखकर लगता है कि चीनी दर्शनों का युग समाप्त हो गया है और वहाँ के राजनीतिज्ञों ने छीन-झपट, गुण्डई और हिंसा को ही चीन का आधुनिक दर्शन स्वीकार कर लिया है ।

पिछले साल गलवान घाटी में हुयी गुण्डागर्दी के पहले से ही चीनी छीन-झपट होती रही है । हाल ही के पाँच-छह वर्षों में चीन ने भारत-भूटान और तिब्बत की सीमाओं के पास आधुनिक सुविधा सम्पन्न लगभग छह सौ से भी अधिक नये गाँव बसा लिये हैं । चीन इस तरह की गतिविधियाँ हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में भी करता रहा है । कृपया यह वृत्तचित्र देखें –

 

उत्तराखण्ड में भारतीय पलायन चीन को वरदान 

भारत और भूटान इसे ववादास्पद क्षेत्र मानते हैं जबकि चीन इसे अपना क्षेत्र मानता रहा है । ब्रिटिशर्स ने 1947 में भारत की सत्ता हस्तांतरण के समय भारत की उत्तरी सीमा के बहुत से क्षेत्रों को विवादास्पद बना रहने दिया । चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया और भारत की बहुत सी भूमि छीन ली । ब्रिटिश काल में भी भारतीय जवान इस क्षेत्र की पेट्रोलिंग करते रहे हैं किंतु 1962 का युद्ध हारने के बाद से ही भारतीय सेना ने इस क्षेत्र की पेट्रोलिंग बंद कर दी । भारत सरकार का यह निर्णय चीन के लिये एक अच्छा अवसर सिद्ध हुआ । उसने भारतीय सीमा के समीप सामरिक महत्व के कई निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिये और अपनी स्थिति और भी सुदृढ़ कर ली जिसके कारण भारत के सामने सदा ही कुछ न कुछ  खोते रहने की स्थिति निर्मित हो गयी ।  

भारत-भूटान और चीन अधिकृत तिब्बत की सीमाओं के पास के क्षेत्र सर्वाधिक विवादास्पद माने जाते हैं । अरुणांचल के अपर-सुबनसिरी जिले में त्सारी-चू नदी के किनारे के इस क्षेत्र के कई गाँवों के स्थानीय निवासी स्वयं को सदियों से भारतीय मानते रहे हैं, वहाँ भारतीय मुद्रा चलती है और बच्चे भारतीय विद्यालयों में पढ़ायी करते हैं । जबकि चीनी प्रवक्ता इसे अरुणांचल के “अपर-सुबनसिरी” जिले का हिस्सा न मानकर चीन के “जन्गनान” जिले का हिस्सा मानने का दावा करते हैं । चीनी प्रवक्ता के अनुसार 2015 में तिब्बत इकॉनॉमिक वर्क कॉन्फ़्रेंस में तिब्बत के पिछड़े क्षेत्रों को आर्थिक गतिविधियों की दृष्टि से विकसित करने के लिये “पॉवर्टी एलीविएशन प्रोग्राम” की योजना बनायी गयी थी । भारत-तिब्बत सीमा पर 2015 के बाद से ही “ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम” के अंतर्गत चीनी सरकार द्वारा प्रथम चरण में छह-सौ ऐसे गाँवों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया गया था जहाँ तथाकथितरूप से आर्थिक गतिविधियाँ की जानी थीं । सन् 2020 तक चीनी बसाहट के आधुनिक गाँवों की संख्या छह सौ से भी अधिक हो चुकी है । इनमें से अधिकांश गाँव भारतीय सीमा के बिल्कुल समीप हैं । हाल ही में चीनियों ने भारत-चीन की वास्तविक नियंत्रण सीमा रेखा (एल.ए.सी.) के चार किलोमीटर अंदर घुसकर एक नया गाँव बसा लिया है जिसमें अब तक एक सौ एक घरों का निर्माण किया जा चुका है । भारत का यह वही क्षेत्र है जहाँ 1962 में भारतीय सेना को पेट्रोलिंग बंद कर देने का आदेश दिया गया था इसी कारण झपटमार चीन इस क्षेत्र को उलझाये रखकर विवादास्पद बनाये रखना चाहता है । भारत सरकार द्वारा बारम्बार माँगे जाने पर भी चीन अपने इस क्षेत्र के नक्शे को कभी साझा नहीं करता जिससे कि स्पष्ट हो सके कि आख़िर वह अरुणांचल के कितने हिस्से पर चीनी क्षेत्र होने का दावा करता है ।

               चीन के अनुसार अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास चीन की बसाहट उस क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है और यह चीन का अधिकार भी है । पता चला है कि भौगोलिक स्थिति के कारण उस क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियाँ शून्य हैं या फिर नाममात्र की हैं जबकि सामरिक दृष्टि से चीनी बसाहट का उद्देश्य दूरदर्शी है । फ़िलहाल इन गाँवों में चीनी अधिकारियों,  कर्मचारियों और अन्य वालण्टियर्स को बसाया गया है जिन्हें भारत और भूटान के समीपवर्ती गाँवों के लोगों को हर तरह से लुभाने और जासूसी करने का काम दिया गया है जिससे कि वे ग्रामीण आने वाले समय में अपने-अपने क्षेत्रों को चीन में सम्मिलित किये जाने के आंदोलन के लिये तैयार हो सकें । चीन ने अपनी ओर से एक बहुत बड़ी चाल चल दी है । अब भारत को भी अपनी सुरक्षा के लिये कोई बहुत बड़ा और दूरदर्शी कदम उठाना ही होगा ।     

भारतीय क्षेत्र में स्थानीय नागरिकों द्वारा चीनी बसाहट का विरोध-प्रदर्शन 

यौनदुष्कर्म का धर्मशास्त्र (Theology of Rape)

ऐसी न जाने कितनी कुर्दिश यज़ीदी लड़कियों को बलात यौनदासी की अनंत यंत्रणा से गुजरना पड़ता है  

सभ्य दुनिया में क्या कोई धर्मशास्त्र ऐसा भी है जो लड़कियों के साथ यौनदासी की तरह व्यवहार करने और उन्हें प्रताड़ित करने की अनुमति देता है? मुझे नहीं मालूम कि वह कौन सा धर्मशास्त्र है किंतु आइसिस और तालिबान के लड़ाकों का कहना है कि उनके पास ऐसा धर्मशास्त्र है जिसके निर्देश पर वे ऐसा कर रहे हैं ।

व्यवहार में यह देखा जाता रहा है कि हर संगठन का अपना एक अलग कानून-कायदा हुआ करता है, फिर चाहे वह संतों का हो या डाकुओं और क्रूर अपराधियों का या फिर वेश्याओं का । संविधान और धर्मशास्त्र भी जीवन और समाज से सम्बंधित कानून-कायदे की ही बात करते हैं । हर संगठन के सदस्यों के लिये उनके कानून-कायदों का पालन अनिवार्य हुआ करता है । किंतु इस तरह की बहुलता और भिन्नता कई प्रकार के टकरावों और विवादों का कारण बन जाया करती है । यह धरती दैत्यों, दानवों, असुरों और राक्षसों आदि के द्वारा बनाये संविधानों से उत्पन्न त्रासदी को भोगते हुये प्राणियों को देखती रही है । अब यह सभ्य दुनिया को विचार करना है कि क्या मनुष्य समाज को किसी ऐसे भी संविधान, धर्मशास्त्र या आचरण संहिता की आवश्यकता होनी चाहिये जो हर किसी के लिये स्वीकार्य और कल्याणकारी हो, और यह भी कि क्या लुटेरों, नशेड़ियों या वेश्याओं के अपने संविधानों की बाध्यता आम आदमी के लिये भी उतनी ही आवश्यक है जितनी कि उनके लिये!

दुनिया भर में ख़लीफ़ा की हुकूमत क़ायम करने के जिहाद पर निकले आइसिस के लड़ाकों ने सिंजर जिले के एक गाँव से बारह साल की एक यज़ीदी कुर्दिश बच्ची को उठा लिया । लड़ाके बताते हैं कि यज़ीदी होने के कारण वह काफ़िर है और जिहाद के दौरान उठायी जाने के कारण कुरान शरीफ़ के अनुसार माल-ए-गनीमत है । माल-ए-गनीमत होने के कारण उसे अपनी यौनदासी बनाना वाज़िब और सबब का काम है । जिहाद का महत्वपूर्ण अंग होने के कारण उसके यौनशोषण को पाप के दायरे से बाहर रखा गया है । यह सब कुरान का निर्देश है ...यानी एक ऐसी आसमानी किताब का जिसे धर्मशास्त्र का दर्ज़ा दिया गया है – “Sex slavery in conquered regions of Iraq and Syria and uses the practice as a recruiting tool is supported by Quran-e-pak.”

लेकिन... कुरान शरीफ़ के इस निर्देश के पालन की हड़बड़ाहट ने आइसिस के लड़ाकों को निरंकुश कर दिया जिसके कारण उनमें आपस में ही संघर्ष होने लगे । मज़बूरन आइसिस को एक फतवा जारी कर विस्तार से यह बताना पड़ा कि जिहादी होने के नाते उन्हें कैसे और कबकिसी काफ़िर लड़कीसे यौनसम्बंध बनाने चाहिये जिससे कि उनमें आपसी संघर्ष न हो और जिहादी लड़ाई भी जारी बनी रहे । यानी क्रूरतापूर्ण व्यवहार को व्यवस्थित तरीके से करने के लिये एक आचारसंहिता का निर्माण कर दिया गया ।

अल्लाह के निर्देश पर ख़लीफ़ा की हुकूमत क़ायम करने वालों ने सिंजर जिले से जिन हजारों लड़कियों को उठाया उनमें यज़ीदियों और ईसाइयों के अतिरिक्त शिया-मुस्लिम भी हैं जो इस्लाम के अनुसार ग़ैर-मुस्लिम होने के कारण काफ़िर हैं ।

हमने धार्मिक चेतना के बारे में सुना है किंतु धार्मिक जड़ता और उन्माद के दुष्परिणामों को भोगा है । ये कैसे धार्मिक निर्देश हैं जिन्होंने अन्य धर्मावलम्बियों के जीवन को नर्क बना दिया है! यह कितनी आश्चर्यजनक बात है कि जहाँ योरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, भारत और बांग्लादेश आदि देशों की मुस्लिम लड़कियाँ स्वेच्छा से आइसिस के गहरे कुएँ में कूदने के लिये अपना सर्वस्व छोड़ रही हैं वहीं सीरिया और ईराक की ग़ैरमुस्लिम लड़कियों को आइसिस के लड़ाके बलात उठाकर ले जाते हैं । शुरुआत अलग-अलग तरीके से होती है लेकिन दोनों ही स्थितियों में लड़कियों के भाग्य में केवल यौनदासी बनना ही लिखा होता है, फिर चाहे वह लंदन और केरल से गयी हुयी मुस्लिम लड़की हो या सिंजर से उठायी गयी कोई काफिर लड़की । 

पिछले चौदह सौ सालों में काफ़िर लड़कियाँ, जिनमें वे मुस्लिम लड़कियाँ भी सम्मिलित हैं जिन्हें आइसिस के लोग मुस्लिम नहीं मानते, यह सीखती रही हैं कि दुनिया के एक धर्मशास्त्र में उनके लिये जलालत और नर्क के अतिरिक्त और कोई स्थान नहीं है । इस बात को काफ़िर पुरुष अभी तक नहीं समझ सके हैं, समझ सके होते तो अपने-अपने धार्मिकविभाग के ईश्वरों से इतना तो अवश्य पूछते कि उन्होंने काफ़िर जाति बनायी ही क्यों, हर किसी को मुसलमान ही क्यों नहीं बनाया ? अपने दादा की उम्र के बूढ़ों से रोज नोची-खसोटी जाने वाली बारह साल की यज़ीदी बच्ची की ख़ता क्या है, इस प्रश्न का उत्तर दुनिया भर के सभ्य समाज को देना ही होगा ।

बारह साल की इस यज़ीदी बच्ची की ख़ता क्या सिर्फ़ यही है कि यह मुसलमान नहीं है?


शनिवार, 25 सितंबर 2021

द पोस्टर गर्ल्स ऑफ़ आइसिस

आइसिस की पोस्टर गर्ल्स सम्रा और सबीना 

ऑस्ट्रिया के वियेना में रहने वाली दो किशोर लड़कियों - Samra Kesinovic आयु 16 वर्ष, और Sabina Selimovic- आयु 15 वर्ष ने सन् 2014 में दुनिया भर में तहलका मचा दिया था । यह इतना डरावना और मन-मस्तिष्क को झकझोर देने वाला तहलका था कि दुनिया भर के चिंतकों को इसे विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चेतावनी मानने के लिये बाध्य होना पड़ा । चेतावनी की गम्भीरता का प्रमुख कारण यह है कि ऑस्ट्रिया की सम्रा और सबीना के अतिरिक्त, फ़्रांस, ब्रिटेन, ज़र्मनी, आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, भारत और बांग्लादेश आदि की हजारों लड़कियों के वैचारिक ताने-बाने ने आज की मानवीय सभ्यता को कटघरे में खड़ा कर दिया है ।

पिछले लगभग डेढ़ दशक से पश्चिमी देशों की हजारों लड़कियाँ स्वेच्छा से आइसिस में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने के लिये अपने घर-परिवार और देश को छोड़कर सीरिया और ईराक जाती रही हैं । आइसिस के सोशल मीडिया के माध्यम से आकर्षित होकर इस्लाम के लिये समर्पित होने वाली इन लड़कियों की आयु प्रायः 20 से 25 वर्ष तक होती है किंतु 13-15 वर्ष की आयु वाली किशोरियों की संख्या भी कुछ कम नहीं होती । आइसिस में शामिल होने वाली लड़कियों में 10 प्रतिशत योरोप, उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया से हैं । योरोप से आने वाली लड़कियों की संख्या में फ़्रांस सबसे आगे है ।

इस्लामिक चिंतन के विस्तारवादी पक्ष से प्रभावित इन देशों की लड़कियाँ विभिन्न कारणों से आइसिस में दाख़िल होने का निर्णय लेती हैं । युवा लड़कियों में से जहाँ अधिकांश दुनिया भर में इस्लाम के विस्तार के लिये धार्मिक योद्धा बनने का ख़्वाब देखती हैं वहीं तेरह से सत्रह साल की ऐसी किशोरियाँ भी हैं जिनमें से कुछ तो आइसिस के लड़ाकों से निकाह करके ऐसे बच्चे पैदा करना चाहती हैं जो आगे चलकर आइसिस की परम्परा को आगे भी बनाये रख सकें जबकि कुछ किशोरियाँ आइसिस के लड़ाकों की स्वेच्छा से यौनदासी बनने का ख़्वाब देखती हैं । फ़्रेंच सिक्योरिटी एजेंसी के पूर्व प्रमुख Louis Caprioli बताते हैं – “In most cases, women and girls appear to have left home to marry jihadis, drawn to the idea of supporting their brother fighters and having jihadist children to continue the spread of Islam. If their husband dies, they will be given adulation as the wife of martyr”.

गम्भीर बात यह है कि फ़्रेंच इन्स्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल एण्ड स्ट्रेटेज़िक रिलेशंस के Karim Pakzad के अनुसार इनमें से कई  किशोरियाँ के मन में अपनी आँखों के सामने आइसिस के लड़ाकों द्वारा काफ़िरों का सर काटते हुये देखने की बड़ी ललक थी । इसका अर्थ यह हुआ कि स्वच्छंद यौनाचार और हिंसा के प्रति अदम्य लालसा ने इन किशोरियों को आइसिस में दाख़िल होने के लिये प्रेरित किया था । यह एक विचित्र स्थिति थी जिसने हमारे सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने का विश्लेषण करने की आवश्यकता के लिये चिंतकों को बाध्य किया । सिंजर से बलात उठा कर रक्का और मोसुल लायी गयी लड़कियों की त्रासदीपूर्ण शुरुआत की अपेक्षा यह ठीक विपरीत स्थिति थी जिसमें ऑस्ट्रिया की किशोरियों ने ख़ुद ही ख़ूँख़्वार शेरों के पिंजड़ों में जाने का निर्णय किया था । इस्लामिक स्टेट ऑफ़ ईराक एण्ड सीरिया की पोस्टर गर्ल्स के नाम से चर्चित हुयी ये दोनों किशोरियाँ अब जीवित नहीं हैं । सम्रा केसिनोविच की आइसिस के लड़ाकों द्वारा अक्टूबर 2014 में हथौड़े से पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी जबकि सबीना सेलिमोविच की मृत्यु कैसे हुयी इस बारे में केवल अनुमान ही लगाये जा रहे हैं ।

सम्रा और सबीना जैसी किशोरियों के आइसिस के प्रति दुर्दांत आकर्षण के पाशविक कारणों ने सभी को हैरान कर दिया है । उन किशोरियों ने जिस विकृत चरमानंद की कल्पना की थी वह शीघ्र ही एक ऐसी त्रासदी में बदल गया जिसकी उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी । वियेना से भागकर सीरिया के आइसिस केंद्र पहुँची उन दोनों किशोरियों को आइसिस के फ़ाइटर्स ने उनकी सामूहिक यौनदासी बनने के लिये विवश किया । सम्रा ने स्वेच्छा से आइसिस की जिस दुनिया में जाने का निर्णय किया था उसी से भागने की कोशिश की और पकड़ी गयी । भागने के दण्डस्वरूप उसकी निर्मम हत्या कर दी गयी । सबीना सेलिमोविच ने आइसिस विचारधारा के विस्तार के लिये दो बच्चे पैदा किये जो वास्तव में यौनदुराचार के परिणामस्वरूप पैदा हुये थे । सबीना भी अधिक दिन तक जीवित नहीं रही, उसकी मृत्यु हो गयी । सीरिया की डेमोक्रेटिक फ़ोर्स ने रिस्क्यू करके सबीना के बच्चों को बरामद किया और फिर उन्हें उनके नाना-नानी के पास ऑस्ट्रिया भेज दिया । सम्रा और सबीना की यह त्रासदी समुद्र में तैरते विशाल हिमखण्ड की चोटी का जरा सा हिस्सा भर है । अभी तक आइसिस की माँद में पूरी दुनिया से कितनी लड़कियाँ समा चुकी हैं इसका लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है । एक अनुमान के अनुसार यूएस बेस्ड सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज़ के द्वारा संचालित शरणार्थी कैम्प अल-हौल में आइसिस के कैदख़ाने से भागी हुयी लड़कियों और आइसिस की बगावती विधवाओं को रखा गया है जिनकी कुल संख्या लगभग साठ हजार है ।

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

मरने के बाद

             म टाकिंग अबाउट डेथ ऑफ़ कॉमन पीपल । ऑव्वियसली, इट इज़ अ रियल डेथ, दैट् इज़ ॐ शांतिः, नो लाइफ़ आफ़्टर डेथ व्हिच इज़ मोर पेनफ़ुल । डेथ मस्ट बी इंज्वायड ऐज़ इट इज़ ।

विश्वास किया जाता है कि मृत्यु के बाद मृतक का स्मारक बनाने और उसके नाम पर विभिन्न स्थानों-मार्गों या संस्थानों का नामकरण करना मृतक के नाम को अमर बना देता है ।

मृतक के प्रति जीवित रहे सांसारिकों की यह लालसा जितनी हठी है उतनी ही अद्भुत भी । विश्व के महान लोग अपनी मृत्यु के बाद भी अमर बने रहते हैं । मृतक के नाम से कुछ लोगों द्वारा एक नयी सांसारिक यात्रा प्रारभ कर दी जाती है जिसके बारे में बेचारे मृतक को कभी कुछ पता भी नहीं चलता ।

मृत्योपरांत प्रारम्भ की गयी नवीन सांसारिक यात्रा भी सुख-दुःख, खण्डन-मण्डन, आक्रोश-श्रद्धा आदि भावों से परिपूर्ण रहती है । मैं हैरान हूँ कि लोग मृत्यु को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहते! मृत्यु के बाद भी मृतक को ऐसे छद्म उपायों से जीवित रखने का प्रयास, क्या ईश्वरीय निर्णय को अस्वीकार करना नहीं है?

महान लोगों की प्रतिमाओं पर फूल-मालायें चढ़ायी जाती हैं, कबूतर दीर्घशंका करते हैं, समर्थक उनके नाम पर योजनायें बनाते हैं...आंदोलन करते हैं, विरोधियों को अवसर मिलता है तो मूर्ति को ही तोड़ देते हैं । मृतक के नाम पर कोई संस्था हो तो अगली सरकार उस नाम को बदल देती है, विरोधी मृतक के नाम पर कालिख पोत देते हैं ...।

बेचारा मृतक! मृत्यु के बाद भी चैन नहीं । मृत्यु के पश्चात की शांति का कहीं अता-पता नहीं ...फिर मरने का लाभ ही क्या हुआ! ...इससे तो अच्छा था जीवित ही बना रहता, कम से कम उसे पता तो रहता कि उसके नाम पर हो क्या-क्या रहा है ।

          अच्छा हुआ कि मैं एक आम आदमी हूँ, चैन से मर सकता हूँ, मरने के बाद भी मरा हुआ ही रहूँगा, कोई कबूतर मेरी प्रतिमा पर दीर्घशंका निवारण नहीं करेगा, कोई मेरी प्रतिमा के गले में जूते-चप्पलों की माला नहीं डालेगा, कोई विरोधी मेरी प्रतिमा को खण्डित नहीं करेगा, कोई मेरे नाम से चल रहे विश्वविद्यालय के सूचना पटल पर लिखे मेरे नाम को कालिख से नहीं पोतेगा । सही अर्थों में मैं अपनी मृत्यु का सच्चा सुख प्राप्त कर सकूँगा ।

कबीर की कामना मुझे सदा याद रहती है – “साईं इतना दीजिये, जा में कुटु समाय । मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय”॥ सम्पत्ति यदि आवश्यकता से अधिक हो तो सुख-शांति के लिये संकट खड़ा होना निश्चित है । उद्योग घरानों से लेकर मंदिर और चर्च जैसे धार्मिक केंद्र भी इस संकट से मुक्त नहीं हैं ।

मृत्यु एक यात्रा है जिसे उत्साहपूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिये । लगभग सभी समाजों में मृतक के प्रति शोक प्रकट किये जाने की परम्परा है जो मृतक की अनंतयात्रा के इस चरण को स्वीकार न किये जाने की प्रतीक है । मैं अपनी अंतिम लौकिक यात्रा के बारे में गम्भीरता से विचार करता हूँ । मृत्यु के बाद लोग "ॐ शांतिः शांतिः शांतिः" का उच्चारण करते अवश्य हैं किंतु उसके तत्व को स्वीकार नहीं कर पाते, मैं अपनी मृत्यु को उत्साहपूर्वक स्वीकार करना चाहता हूँ, और इसलिये किसी ऐसे स्थान में जाकर मरना चाहता हूँ जहाँ केवल मैं होऊँ और मेरे एवं ईश्वर के बीच में कोई और न हो ... कोई बाधा न हो । मैं नहीं चाहता कि किसी को मेरी मृत्यु के बारे में पता चले, मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी मृत्यु पर झूठी संवेदना व्यक्त करे, मैं नहीं चाहता कि मृत्यु के बाद भी मुझे बलात् जीवित रखने का छद्म कृत्य किया जाय । मैं सचमुच शांति से मरना चाहता हूँ ।

बुधवार, 22 सितंबर 2021

हाई प्रोफ़ाइल संत, मौलाना कलीम और बंजारा

         माया-मोह और परिवार के राग से निवृत्त वह व्यक्ति संत बनने के मार्ग पर चला था । मार्ग के प्रारम्भ में ही इंद्रपुरी पड़ती थी जिससे होते हुये आगे जाना था किंतु वह व्यक्ति इंद्रपुरी के वैभव से आसक्त होकर गहन राग में प्रवृत्त हो गया, नैष्ठिकी यात्रा अधूरी रह गयी । मोह से मुक्ति नहीं मिली बल्कि वह और भी गहन होती गयी, वैभव और सम्पत्ति से मुक्ति नहीं मिली बल्कि उसका और भी विस्तार होता गया ।

मोह का साम्राज्य जैसे-जैसे बड़ा होता गया, प्राणों की सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती गयी । दैहिक नश्वरता और आत्मा की अमरता का दर्शन धूमिल हो गया, वेदांत दर्शन के सूत्र अर्थहीन हो गये और संत को अपने नश्वर शरीर की रक्षा के लिये गनर्स और बाउन्सर्स की व्यवस्था करनी पड़ी । संत वृद्ध हुये तो उनके आश्रम की अकूत सम्पत्ति के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष हुआ, उसके बाद की घटनाओं को बताने की आवश्यकता होते हुये भी अनुमानजन्य होने से बताने की आवश्यकता नहीं है । सनातनधर्म की पताका फहराने के लिये उठे पग दिखायी तो दिये ...पर आगे बढ़ नहीं सके । भारत भर में सनातनधर्मियों का धर्मांतरण होता रहा, लड़कियों को कलमा पढ़ाया जाता रहा, लाखों लोग मुसलमान बनते रहे ...सनातनधर्म की पताका फहराने वाले हाथ दूर-दूर तक कहीं दिखायी नहीं दिये ।

मौलाना कलीम संत नहीं है, बैरागी भी नहीं है किंतु इस्लाम का परचम दुनिया भर में फहराने के लिये समर्पित है । माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर | आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर॥ इसीलिये तो मौलाना कलीम गोमांस सेवन करते हुये ...सांसारिक वैभव भोगते हुये सनातनी कुलीन परिवारों की लड़कियों को कलमा पढ़ाता है और इस्लाम का विस्तार करता है । मौलाना को भी देह की नश्वरता पर विश्वास है ...उसका यही विश्वास युवाओं को फिदायीन बन जाने को प्रेरित करता है, इस्लाम के विस्तार के लिये नश्वर शरीर को विस्फोटकों से उड़ा देने के लिये उत्साहित करता है ।

भारत में रहने वाले सनातनी परिवार इस्लाम के विस्तार का हिस्सा बनते रहे हैं ...बनते जा रहे हैं । भारत के कई मौलाना और कुछ नेता पूरी दुनिया को इस्लामिक मुल्क बनाने का ऐलान करते हैं । ऐलान को छोड़िये ....भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की याचना ही करने का साहस जुटा पाना भारत में एक अत्यंत दुष्कर कार्य माना जाता है । अजमेर शरीफ़ में कुछ साल पहले हुये एक सुनियोजित यौनशोषण की दीर्घकालीन श्रंखला में कुलीन सनातनी लड़कियाँ ही मौलानाओं की हवस का शिकार होती रही हैं । भारत भर में फैले संतों के आश्रम गहन साधना में लीन बने रहे ...आज भी लीन हैं । यूँ यह भी पूछा जा सकता है कि सनातनी परिवार की लड़कियों की रक्षा के दायित्व की अपेक्षा संतों से ही क्यों, हिंदू समाज और प्रशासन पर क्यों नहीं ?

प्रयागराज का महाकुम्भ मेला एक तरह से देशी-विदेशी संतों का महामेला हुआ करता है जहाँ हाई प्रोफ़ाइल बाबाओं के आश्रमों की भव्यता आम आदमी को आश्चर्यचकित करती है । जहाँ आम आदमी इन बाबाओं के दर्शन के लिये तरसता है वहीं राजनेताओं, व्यापारियों और उच्चाधिकारियों के लिये उनके भव्य आश्रमों के द्वार सदा खुले रहते हैं । किसी मंत्री की तरह जीवनयापन करने वाले इन बाबाओं को संत मानकर पूजे जाने की परम्परा है । चार-चार गनर्स और बाउंसर्स से अहर्निश सुरक्षित रहने वाले इन मृत्युभीरु संतों को मेरा मन संत मानने के लिये कभी तैयार नहीं होता और विद्रोह कर देता है । मैं इन जटा-जूटधारी संतों को बाबा ही कहना चाहता हूँ । सच्चा संत तो कबीर है – माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर । कर का मन का डारि दे मन का मनका फेर

कबीर के बाद कुछ और भी सच्चे संत हैं जो हिमालयन ग्लेशियर्स के पास के बुग्यालों में अपनी भेड़ें, घोड़े या खच्चर चराते हुये दिखायी दिये हैं मुझे । लोग उन्हें बंजारा कहते हैं, मैं उन्हें संत कहता हूँ ।   

रविवार, 19 सितंबर 2021

जन्नत – एक सपना एक सच

         शराब हराम है यहाँ ख़ुदा के बंदों के लिये, मगर जन्नत में भरपूर उपलब्ध है और परोसी जाती है ख़ुदा के बंदों के लिये । अंगूर की शराब की नदियाँ और नहरें बहती हैं वहाँ । औरतों के लिये पर्दे में रहना वाज़िब है यहाँ, मगर जन्नत में वे बहुत झीने लिबास में घूमती हैं ...अपनी ख़ूबसरती नुमाया करती हुयी । एक अफ़गानी लड़की ने बताया है कि औरतों को बुर्कों में कैद करके रखने वाले तालिबान को किसी औरत का ज़िस्म चाहिये होता है फिर चाहे वह बच्ची का हो या तरुणी का, ज़िंदा औरत का हो या फिर मुर्दा का, …ज़िस्म में कोई और शर्त नहीं होती सिवाय इसके कि वह निहायत बुढ्ढी न हो ।

धरती की ज़िंदगी जन्नत की ज़िंदगी से इतनी उलट क्यों है? क्या इस्लाम के कायदे जन्नत में मान्य नहीं, या फिर वहाँ के कायदे यहाँ से कुछ अलग हैं? बस, कुछ अज़ीब सा लगा तो पूछ दिया, इरादों पे शक न करना मेरे!

हर मज़हब की समाज व्यवस्था उनकी अपनी ज़रूरतों और मान्यताओं के अनुसार तय की जाती है । उसूल है कि किसी को इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये (इसमें यह शर्त और जोड़ी जानी चाहिये कि – “जब तक कि इससे दूसरे लोग नकारात्मक रूप से प्रभावित न हो रहे हों”)।

इस्लाम की दुहाई देने वाले कुछ संगठनों को फिदायीन की ज़रूरत होती है जिसका संदेश आम आदमी तक उनकी मज़हबी मान्यताओं को पुष्ट करने के रूप में पहुँचता है । फिदायीन हमला उनकी ज़रूरत हो सकती है लेकिन उसके प्रभाव से उन लोगों को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता है जिनका कोई ग़ुनाह नहीं होता सिवाय इसके कि वे उनके द्वारा घोषित काफ़िर होने के अपराधी होते हैं । कोई अपनी मर्ज़ी से काफ़िर पैदा नहीं होता, उनकी तरह इन्हें भी अपने धर्म में आस्था होती है फिर भी वे उनकी ज़िद के अनुसार काफ़िर होने के अपराधी होते हैं । हिंदू किसी की स्वतंत्रता के हरण को मान्यता नहीं देते, वे औरतों पर ज़ुल्म-ओ-सितम को जायज़ नहीं ठहराते, वे कम उम्र लड़कियों से बलात यौनदुराचार को अपना हक मानने की ज़िद को जायज़ नहीं ठहराते, वे किसी की लूटी हुयी सम्पत्ति को माल-ए-गनीमत मानते हुये उसे धार्मिक कृत्य मानने का समर्थन नहीं करते ....फिर भी वे काफ़िर कहलाते हैं और उनका कत्ल कर देना ख़ुदा की शान में किया हुआ सबब माना जाता है । कुल मिलाकर जो ग़ैरमुस्लिम हैं वे उनकी जीवनशैली और मान्यताओं से बुरी तरह प्रभावित होते हैं इसलिये आज हमें भी फ़िदायीन की फ़िलॉसफ़ी पर चर्चा के लिये बाध्य होना पड़ रहा है ।

मैं एक ब्राह्मण युवक को जानता हूँ जिसने एक मुस्लिम लड़की से निकाह करने के लिये इस्लाम कुबूल कर लिया है, वह डॉक्टर है और अब इस्लामी मान्यताओं का समर्थक है । उसने धर्म बदलने के साथ ही अपनी मान्यताएँ, अपने विश्वास, अपने धार्मिक कर्मकाण्ड और अपने पूर्वज भी बदल लिये हैं । अब उसके नये (एडॉप्टेड) पूर्वज अरबी हो गये हैं जो कि वास्तव में नहीं है । अब उसके वास्तविक पूर्वज उसके शत्रु हो गये हैं जो कि वास्तव में नहीं हैं । अब उसे बचपन में याद की हुयी संस्कृत में लिखी स्तुतियाँ पाखण्ड लगने लगी हैं । अब वह “या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता...” को फ़िज़िक्स, कैमिस्ट्री और मेडिकल साइंस के परिप्रेक्ष्य में देखता है तो उसे यह सब निहायत बेवकूफ़ाना लगता है । अब वह पहले की तरह हिंदी नहीं बल्कि उर्दू बोलने लगा है और बात-बात में इंशाअल्ला और सुभान अल्लाह या फिर अल्हम्दुलिल्लाह कहने लगा है (निकाह से पहले, शायद यह सब उसे साइंटिफ़िक लगा होगा) । बहरहाल, अब वह भारत में शरीया कानून चाहता है और इसके लिये वह सब कुछ करने के लिये तैयार है जो एक मुसलमान को करने के लिये आदेशित किया जाता है । आदेश देने वाला कोई मौलवी होता है जिसकी तालीम से ज़्यादा तालीम एक डॉक्टर की होती है ...ऐसा मैं नहीं कहता, बल्कि आम लोगों द्वारा माना जाता है ।

फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ फिदायीन समझने के लिये हमें इन तमाम घटनाओं को भी ध्यान में रखना होगा । हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि एक महिला डॉक्टर, जो कि एक सरकारी अस्पताल में गायनेकोलॉज़िस्ट है, सरकारी प्रिस्क्रिप्शन पर अपने हिंदू मरीज़ों को रोजे और अल्लाह में ईमान लाने की बात लिख कर देती है (कुछ वर्षों तक हुयी शिकायतों के बाद शायद उस पर कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की गयी है) । हम यह नहीं कहेंगे कि अनुशासनात्मक कार्यवाही और सालों चलने वाली जाँचों के ढकोसले पर्याप्त है या नहीं बल्कि यह कहना चाहेंगे कि एक चिकित्सक की मानसिकता इस्लाम को लेकर कितनी वैज्ञानिक हो सकती है!    

“अंगूर की शराब की नहरें” जो धरती पर नहीं होतीं, जन्नत में हैं, उनके चित्र तहरीक-ए-तालिबान-पाकिस्तान ने नॉर्थ वज़ीरिस्तान में अपने फिदायीन सेंटर में नुमाया कर दिये हैं ।  फिदायीन सेंटर में जन्नत के नज़ारे की अगली नुमाइश में बहत्तर हूरों के चित्र लगाये गये हैं, जो वास्तव में बम्बइया फ़िल्म अभिनेत्रियों के चित्र हैं और जो हिंदू होने की वज़ह से काफ़िर भी हैं । माना जाता है कि “काफ़िर की औरतें माल-ए-गनीमत” होती हैं और उन पर ख़ुदा के बंदों का पूरा हक हुआ करता है । ज़िंदा लोगों की तस्वीर लेना या नुमाया करना इस्लाम में हराम है, लेकिन काफ़िर औरतों की तस्वीरों की नुमाइश जायज़ है मानी जाती है । यह मानना और न मानना कहाँ से और कौन तय करता है, उसका आधार क्या है ...किसी को नहीं पता । मुझे उस ब्राह्मण युवक की याद आ रही है जो डॉक्टर है और अब मुसलमान भी है । यदि वह गज़वा-ए-हिंद के लिये फिदायीन बन जाय तो वायदे के मुताबिक उसे भी अल्लाह के हाथों से अंगूर की शराब की नहर में से जाम पर जाम पीने को मिलेंगे और ख़ूबसूरत बहत्तर हूरें भी मिलेंगी जिनके लिबास एकदम पारदर्शी हैं ...और जिनसे उनके ज़िस्म का वह सब कुछ नुमाया होता रहता है जिसकी इस्लाम में इजाज़त नहीं हुआ करती । ओफ़्फ़ ! ऊपर वाले ने धरती, जहन्नुम और जन्नत के डिपार्टमेंट्स में इतना ज़मीं-आसमाँ का फ़र्क क्यों किया है?      

सँभल जाइये

 रचते-रचते ही रंग ये निखर पायेगा

कभी तो जरा सा सबर कीजिये ।

वक़्त करवट बदलने को तैयार फिर

आप भी थोड़ा सा अब सँभल जाइये ।  

आ गये हम फिर से अपने शहर

आप भी थोड़ा सा अब ठहर जाइये ।

हाँ सजाया सँवारा है हमने इसे

पृष्ठ इतिहास के भी पलट लीजिये ।

था छुआ मैंने तुमको गज़ल जानकर

यूँ फुफकार ना, मान भी लीजिये ।

पूजते हम वतन को माँ मानकर

आँच आने न देंगे ये सुन लीजिये ।

हाँ ये भारत, सुनो तुम, मेरे बाप का है

मेरे बाप के बाप के बाप के भी बाप का है 

लूटने अब न देंगे सँभल जाइये ।

हो कौन तुम और आये कहाँ से  

पूछ पुरुखों से अपने समझ लीजिये ।

जिनके आदर्श कासिम, बख़्तयार औ बाबर

वे भी कातिल लुटेरे हैं लिख लीजिये ।

है वीरों की आदर्शों की ये धरती

गुरु गोविंद, बंदा, तात्या औ मंगल

रानी झाँसी ओ नीरा को गुन लीजिये ।

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

“बिना खड्ग बिना ढाल”

 ...अर्थात भारत का वह इतिहास जिसकी चर्चा नहीं होती

सन् उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी को यही पढ़ाया और सुनाया जाता रहा कि भारत के लिये जो किया केवल नेहरू और गाँधी ने किया । गाँधी ने खेत जोता और नेहरू ने फसल बोयी जिसके परिणामस्वरूप उनकी प्रजा को एक आधुनिक और औद्योगिक भारत की फसल काटने का सुअवसर प्राप्त हुआ ।

हर साल पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को हमें बताया जाता रहा कि नेहरू का अर्थ है “कुर्बानियों वाला ख़ानदान”। इंदिरा जी ने देश के लिये अपने प्राणों की कुर्बानी दी, उनके दोनों बेटों ने भी देश के लिये प्राणों की कुर्बानी दे दी, फिर इंदिरा जी की बड़ी बहू सोनिया मायनो ने भी प्रधानमंत्री पद की कुर्बानी दे दी ।

उन्नीस सौ सैंतालीस में नेहरू के सामने कुर्बानी न देने की विवशता थी । कहा जाता है कि देश पहली बार स्वतंत्र हुआ था, नेहरू ने किसी तरह सुभाष बाबू को हटाकर और वल्लभ भाई पटेल को किनारे लगाकर प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ किया था, वे अपनी कुर्बानी दे देते तो अंग्रेज़ों के 17 प्रोविंसेज़ और भारतीय राजाओं के 565 प्रिन्सली स्टेट्स का एकछत्र बादशाह कौन बनता!   

जन्म लेने के बाद से भारतीय इतिहास की एकमात्र गाथा हम सब सुनते रहे हैं कि गाँधी ने हमें “बिना खड्ग बिना ढाल” ब्रिटिश पराधीनता से मुक्त कराया और स्वतंत्रता दिला दी । हम बड़े हुये तो एक विदेशी ने बताया कि चौदह अगस्त की आधी रात को ब्रिटिशर्स ने भारत में अपनी हुकूमत वाले सत्रह राज्यों (प्रोविंसेज़) की सत्ता भारत की अंतरिम सरकार के रसूख़दार जवाहरलाल नेहरू को हस्तांतरित कर दी थी, जिसे सुबह होते ही “स्वतंत्रता” कहकर प्रचारित कर दिया गया था । जिन सत्रह राज्यों पर कभी भारतीय राजवंशों का राज्य हुआ करता था, उन्हें छल-बल से ब्रिटिशर्स ने हथियाया और फिर जब भारतीय क्रांतिकारियों ने उनकी नाक में दम कर दिया और ब्रिटेन की अपनी हालत भी कई कारणों से ख़राब होने लगी जिसके कारण वे भारत में और अधिक झेल सकने की स्थिति में नहीं रहे तब उन्होंने उन सत्रह राज्यों की कमान पूर्व राजवंशों को न सौंपकर नेहरू को सौंप दी । इस तरह भारत के सत्रह राज्यों की एकमुश्त बादशाहत नेहरू को मिल गयी, यानी नेहरू पूरे भारत के बादशाह बनने के स्थान पर मात्र सत्रह राज्यों के ही मालिक बन सके । लेकिन नेहरू के सपनों में भारत के वे 565 राज्य और भी थे जिन पर ब्रिटिश सत्ता की हुकूमत नहीं थी बल्कि वे स्वतंत्र राज्य थे और जिनके अपने-अपने राजा, महाराजा, सुल्तान या नवाब थे ।

चौदह अगस्त सन् उन्नीस सौ सैंतालीस की आधीरात को एकमुश्त सत्रह राज्यों की बादशाहत पाकर नेहरू रात भर में ही एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री बन चुके थे । उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा छोड़े गये हथियारों के भारी ज़ख़ीरों के साथ एक सुसज्जित सेना भी विरासत में प्राप्त हुयी थी । नेहरू के सामने चीन और रूस के उदाहरण थे जहाँ कम्युनिज़्म के नाम पर छोटे-छोटे राजाओं से उनके राज्यों को छीनकर दो बड़े राष्ट्र बनाये जा चुके थे ।  

नेहरू को सत्रह नहीं बल्कि भारत के 565 स्वतंत्र राज्यों की भी बादशाहत चाहिये थी । इस काम के लिये उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी पटेल की सेवायें लीं । शरीर से अस्वस्थ पटेल ने अपने राजनीतिक कौशल से 565 राज्यों की बादशाहत सचमुच में “बिना खड्ग बिना ढाल” लाकर नेहरू की झोली में डाल दी । नेहरू अब भारत के सभी 582 राज्यों के मालिक बन चुके थे । यानी ब्रिटिश राज्य ने अपने अधीन रहे भारत के मात्र सत्रह राज्यों को ही हस्तांतरित किया था शेष 565 राज्य नेहरू की किस्मत और पटेल के कौशल से नेहरू को प्राप्त हुये थे ।

ब्रिटिश हुकूमत वाले सत्रह राज्यों से मुक्त होने के लिये तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, सुभाषचंद्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे न जाने कितने क्रांतिकारियों के अतिरिक्त बेशुमार गुमनाम क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया था । तमाम संसाधनों के बाद भी ब्रिटिश अधिकारी भारतीय क्रांतिकारियों के गुरिल्ला युद्ध से ख़ौफ़ खाने लगे थे । ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भारतीयों पर किये जाने वाले नृशंस अत्याचारों के किस्सों से पूरी दुनिया में ब्रिटेन की बदनामी हो चुकी थी । फिर एक समय आया जब योरोप को महामारी और भुखमरी का ही सामना नहीं करना पड़ा बल्कि विश्वयुद्ध का भी सामना करना पड़ा । स्थितियाँ ब्रिटिशर्स के हाथ से खिसकती जा रही थीं । वे एक साथ सभी मोर्चों पर लड़ सकने की स्थिति में नहीं थे अंत में उन्होंने भारत से भाग जाने में ही अपना कल्याण समझा किंतु विघ्नसंतोषी ब्रिटिशर्स ने भागने से पहले भारत में बबूल और नागफनी की भरपूर फसल ऐसी बोयी कि जिसे आज तक हम भारतीय काटने के लिये विवश हैं । अंग्रेज़ों ने भारत के टुकड़े किये और ऐसे लोगों को सत्ता का हस्तांतरण किया जो तन से भारतीय किंतु मन और चिंतन से ब्रिटिशर्स थे ।

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

मनुष्य से श्रेष्ठ कौन?

         मुझे महाभारत के शांतिपर्व के एक श्लोक पर टिप्पणी के लिये कहा गया है । गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि, न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” – (महाभारत, शांतिपर्व, 229/20)

मैं ईराक और अफ़गानिस्तान से ही प्रारम्भ करता हूँ, जहाँ अमेरिकी सैनिक, तालिबान, आइसिस और आम नागरिकों के बीच हिंसा की घटनायें पिछले कुछ दशकों से होती आ रही हैं । टीवी पर प्रसारित होने वाले समाचार और दृश्य दर्शकों के मन में भय, उत्तेजना, दुःख और निराशा उत्पन्न करते हैं । इन्हीं दृश्यों में से कुछ दृश्य ऐसे भी हैं जो करुणा और आशा भी उत्पन्न करते हैं । इन सभी दृश्यों, भावों और अनुभूतियों का कारण क्या है?

एक दृश्य में अमेरिकी सैनिकों ने आइसिस के कुछ आतंकियों को पकड़ लिया है । आइसिस के लोगों ने अमेरिकी सैनिकों को पकड़ा होता तो वे उनकी नृशंस हत्या कर देते किंतु अमेरिकी सैनिकों ने ऐसा नहीं किया ...उन अमेरिकी सैनिकों ने, जिनके हृदय में 9/11 की क्रूरष्ट घटना के चित्र सदा के लिये अंकित हो चुके हैं, पकड़े गये आतंकियों को अपनी बोतल से निकालकर पानी पिलाया । टीवी का दर्शक क्रूरता और मनुष्यता के दोनों पक्षों से साक्षात्कार करता है ।

दूसरे दृश्य में एक हजारा अफ़गानी स्त्री गाँव के बाहर तड़पते हुये एक घायल व्यक्ति को पानी भी देती है और रोटी भी । घायल व्यक्ति तालिबान लड़ाका है जो हजारा अफगानियों को देखते ही गोली मार देता है या स्त्रियों को देखते ही उन पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ता है । स्त्री को नहीं पता कि जान बच जाने के बाद वह पुरुष उस स्त्री के साथ किस तरह का व्यवहार करेगा । इस दृश्य में दर्शक स्त्री के उन उत्कृष्ट गुणों का साक्षात्कार करते हैं जो स्त्री को आदरणीय और पूज्य बनाते हैं।

एक अन्य दृश्य में तालिबान दुष्कृत्यों की कल्पना से भयभीत एक माँ अपनी दुधमुहीं बच्ची को काबुल हवाई अड्डे की दीवाल पर खड़े अनजान विदेशी सैनिक की ओर उछाल देती है । माँ की आँखों में आँसू हैं और हृदय जैसे बैठा जा रहा हो । संकट के उन क्षणों में उस माँ को विश्वास है कि अनजान विदेशी सैनिक उसकी बच्ची को अपने देश ले जायेगा और अपनी बेटी की तरह पालेगा ।  

          हमें अपने जीवन में कई बार परस्पर विरोधी भावों, घटनाओं और स्थितियों का सामना करने के लिये विवश होना पड़ता है । हम क्रूरता का सामना करते हुये मनुष्यता की आशा में आगे बढ़ते जाते हैं । यह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की यात्रा है, यह मनुष्य की मनुष्यता की ओर यात्रा है । यह “तमसोमा ज्योतिर्गमय” का संकल्प है ।

“गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि, न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” – (महाभारत, शांतिपर्व, 229/20)

मनुष्य तो आपस में युद्ध करते हैं, एक-दूसरे के प्रति हिंसक और क्रूर होते हैं, स्वार्थ के लिये विश्वासघात करते हैं तब मनुष्य के लिये श्रेष्ठ कौन है? स्वामिभक्त श्वानया हल जोतने वाले बैल... या दूध देने वाली गाय... या यात्रा और युद्ध में काम आने वाले हाथी-घोड़ा और ऊँट... या मनोरंजन करने वाले गंधर्व... या वरदान देने वाले देव...???

रहस्य की बात यह है कि इस सबके बाद भी “...न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्” । अनेक दुर्गुणों के बाद भी मनुष्य के लिए मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं है, यहाँ तक कि ब्रह्म भी नहीं । सुरों, असुरों, दैत्यों, दानवों और राक्षसों के पास अद्भुत शक्तियों के भंडार हैं, किंतु उनके पास वे शक्तियाँ नहीं हैं जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने के लिये आवश्यक हैं । दूध की श्रेष्ठता उसके दुग्धत्व में ही है जो दूध के अतिरिक्त अन्यत्र असम्भव है । अमृत की श्रेष्ठता उसके अमृतत्व में ही है जो अमृत के अतिरिक्त अन्यत्र अप्राप्य है । विष की मारकता उसके विषत्व में ही है जो विष के अतिरिक्त अन्यत्र अप्राप्य है । दूध हो या अमृत या फिर विष, किसी को किसी अन्य चीज से फ़ोर्टीफ़ाइड नहीं किया जा सकता । मनुष्य के इष्ट के लिये मनुष्यता के गुणों से युक्त मनुष्य ही चाहिये ...मनुष्य के इष्ट के लिये मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं ।

फिर प्रश्न उठता है, कैसा मनुष्य? तालिबान और आइसिस के लड़ाके भी मनुष्य जैसे ही दिखायी देते हैं । हम ऐसा मनुष्य कहाँ से खोज कर लायें जो वास्तव में मनुष्य हो... जिसके अंदर मनुष्यता हो?

मनुष्य जैसे दिखने वाले पढ़े-लिखे लोग भी निराश करते हैं, स्वयंभू सभ्य लोग भी निराश करते हैं, वैभवसम्पन्न लोग भी निराश करते हैं, तब मनुष्यता वाला मनुष्य कहाँ से मिलेगा?

संस्कारात् ... संस्कार से मिलेगा ऐसा मनुष्य । संस्कार कहाँ से मिलेगा?

मूसलयुद्ध करने वाले यदुवंशियों को संस्कार क्यों नहीं मिल सका? देवकी के भाई कंस को संस्कार क्यों नहीं मिल सका? विभीषण के भाई दशग्रीव को संस्कार क्यों नहीं मिल सका?

संस्कार भी एक यात्रा है, आत्मचेतना की यात्रा, पूर्वजन्मकृत कर्मफलों की यात्रा । हमारे संस्कारों के लिये हम ही उत्तरदायी हैं । बात फिर कर्मयोग पर आकर ठहर जाती है... उन लोगों पर आ कर ठहर जाती है जो अपने समाज और राष्ट्र के लिये इज़्रेल की तरह कर्मयोग के लिये समर्पित और निष्ठावान होते हैं ।