योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपा करोत्तम प्रवरं मुनीनाम् पतञ्जलिं प्राञ्जलिरान तोऽस्मि॥
भारत में निरंकुश हो चुकी अराजकता गृहयुद्ध
जैसी स्थितियाँ निर्मित करने में लगी है। आये दिन
हिंसा हो रही है। परिश्रम से अर्जित सम्पत्तियों को नष्ट किया जा रहा है। दशकों से
बनायी जाती रही नस्लीय और साम्प्रदायिक विनाश की नींव अब हर किसी को स्पष्ट दिखायी
देने लगी है। चारो ओर असंतोष, आक्रोश और
विरोध की आग है, समाधान के
प्रयास कहीं दिखायी नहीं देते, शायद किसी
को उसकी आवश्यकता भी नहीं है।
मानवता की भी बात की जाती है जो कागजों
और भाषणों में बंदी हो चुकी है। आये दिन होने वाली छुटपुट हिंसाओं और युद्ध में न जाने
कितने लोगों की हत्याएँ हो रही हैं, इसी बीच
विश्वयोगदिवस भी मनाया जा रहा है। शायद यूक्रेन में हो रहे युद्ध के बीच दोनों पक्षों
के सैनिक भी सुबह-सुबह योग कर रहे होंगे। योग तो पाकिस्तान और चीन में भी किया जाने
लगा है जहाँ मानवता को रौंदते हुये विस्तारवाद की ही पूजा की जाती है। हम सब ऐसे ही
विरोधाभासों के बीच मुस्कराने के लिए बाध्य हैं।
कुछ लोग पूछते हैं – योग तो रोज
करता हूँ, लाभ क्यों
नहीं हो रहा? यही प्रश्न
महर्षि पतञ्जलि से पूछा जाता तो वे बताते कि हमने तो अष्टाङ्ग योग के लिए कहा था आप
तो केवल योगासन और प्राणायाम ही कर रहे हैं वह भी बीच में छलाँग लगाकर, यम और नियम
की सीढ़ियों पर चढ़े बिना सीधे आसन और प्राणायाम! बीज बोये बिना खेत में बजूका लगाकर
अच्छी फसल की आशा कर रहे हैं! परिणामस्वरूप
यह सभ्यता योगासन और प्राणायाम करते हुये भी प्रतिपल महाविनाश की ओर बढ़ती जा रही
है।
अभी तक स्वस्थ्य तन और स्वस्थ्य मन के
लिए योग की बातें की जाती रही हैं। मधुमेह, कैंसर, हृदयरोग, एंज़ाइटी
और पार्किंसोनिज़्म जैसी व्याधियों की चिकित्सा के लिए औषधियों के साथ-साथ योगासन
और प्राणायाम का भी उपयोग किया जाने लगा है। अर्थात चिकित्सा के स्थूल उपायों के
साथ-साथ सूक्ष्म उपायों का भी उपयोग किया जाने लगा है। किंतु इतना ही पर्याप्त
नहीं है, समस्याएँ
अभी भी हैं, जो विभिन्न
रूपों में हमारे सामने आती जा रही हैं। जो सचमुच सुख और शांति चाहते हैं उन्हें एक
बार फिर अष्टाङ्गयोग के विभिन्न अङ्गों के बारे में चिंतन-मनन की आवश्यकता है।
यदि समाज और प्रकृति अस्वस्थ है तो हम भी
उसकी अस्वस्थता से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकते। मानवता और विश्वबंधुत्व हमारी
आवश्यकता है, शांति और
प्रसन्नता हमारी आवश्यकता है, इसीलिए अष्टाङ्गयोग
भी हमारी आवश्यकता है।
हम डार्क-वेव के युग में प्रवेश कर चुके
हैं, भौतिकता
बढ़ रही है पर वह स्थूल से सूक्ष्मतर होती जा रही है। फ़्री-रेडिकल्स शरीर में ही नहीं, समाज में
भी हैं और उनका सामना करने के लिए उपलब्ध एण्टीऑक्सीडेन्ट्स पर्याप्त नहीं हैं। मानवता
के लिए हमें समाज में पनपते फ़्री-रेडिकल्स को यम-नियम के द्वारा संतुलित करना होगा।
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