धर्म एक विज्ञान है, और जीवन की एक कला भी। धर्ममूलक शिक्षा बच्चों को संस्कारवान बनाती है। इसके लिए घर ही सर्वाधिक उपयुक्त पाठशाला है, विद्यालयों में यह सम्भव नहीं। अर्थात बच्चों के संस्कार का 49 प्रतिशत दायित्व माता-पिता पर निर्भर करता है, 50.9 प्रतिशत बच्चे की मौलिक प्रकृत्ति पर और 0.1 प्रतिशत समाज पर। यह मेरा आकलन है, इसमें भिन्नता हो सकती है।
मैंने
अपने बेटे की बालसुलभ जिज्ञासाओं के समाधान के लिए उसे जो बताया वह उसके लिए
पर्याप्त नहीं था। मुझे आगे बढ़कर वैशेषिक और सांख्य दर्शन को सामने लाना पड़ा। कुछ
समय बाद उसकी जिज्ञासाओं ने फिर सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया। मुझे कैमिस्ट्री और
फ़िजिक्स को भी सामने लाना पड़ा। बेटा बड़ा हुआ तो उसने अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के
लिए क्वांटम फ़िज़िक्स को भी खँगाला।
बेटा
बाहर रहने लगा, एक बार घर आया तो मुझे लगा कि वह कम्युनिस्ट हो गया है। मैंने परखने का
प्रयास किया तो पता चला कि वह निर्गुण ब्रह्म का उपासक है। उसने बताया कि साधक के
लिए सगुणब्रह्म की उपासना प्रारम्भिक स्थिति है, अगली स्थिति
निर्गुणब्रह्म है। उसकी दृष्टि कृष्ण को एक धार्मिक कम्युनिस्ट के रूप में पहचानती
है। मैं उसे धर्मसापेक्ष्य कम्युनिस्ट कहने लगा हूँ।
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