मंगलवार, 7 जून 2022

राजनीतिक विवशताएँ

         राजनीति बहुत टेढ़ी-मेढ़ी और ऊँची-नीची पगडंडी है। राजनीतिक निर्णयों के बारे में हमारी धारणाओं और विचारों में भिन्नता हो सकती है। राजनीतिक गलियारों में छद्माचारियों के कूट-प्रमाणों और चिल्ल-पों (जिसे वे तर्क कहते हैं उसे यही संज्ञा दी जा सकती है) से जनता के सामने बड़ी भ्रम की स्थितियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। उनके निर्णयों और जनता की समझ में तालमेल का हो पाना एक दुर्लभ स्थिति है। तो समझ का यह संकट जनता के सामने भी है जिसके लिए सरकारें और विपक्षी दल दोनों ही कहीं अधिक उत्तरदायी हैं।

व्यक्ति और समाज की समस्याएँ अब धार्मिक ध्रुवीकरण और उसके सहारे सत्ता की छीना-झपटी के चारो ओर बड़ी तीव्रता से घूमने लगी हैं। समाज के आधुनिकीकरण, विकास और आर्थिक सम्पन्नता के साथ यह छीना-झपटी और बढ़ेगी। जनता को बहुत समझदारी और धैर्य के साथ स्वयं और समाज को बचाने के लिए आगे बढ़ना होगा, सरकारों से अधिक यह दायित्व हम सबका है।

तर्क दिया जाता है कि मोदी और योगी की स्थिति “आगे नाथ न पीछे पगहा” वाली है, वे भ्रष्टाचार या छल किसके लिए करेंगे! उनका सदाचार हो या भ्रष्टाचार, निष्ठा हो या छल... जो भी है वह सब समाज और देश के लिए ही तो है।

यह एक वजनदार तर्क है, फिर भी कुछ प्रश्न उठते हैं। दुनिया के किसी देश की आपत्ति पर हम अपने आंतरिक मामलों के निर्णयों को पलट देने के लिए क्यों तैयार हो जाते हैं? हम आस्ट्रेलिया और फ़्रांस की तरह दृढ़तापूर्वक सामना क्यों नहीं कर पाते? हम उनके सामने क्यों झुक जाते हैं जिन्हें यदि चावल न दें तो त्राहि-त्राहि मच जाए? मुस्लिम देश के राष्ट्राध्यक्ष की मृत्यु पर भारत का राष्ट्रध्वज झुका दिया जाता है, प्रधानमंत्री की आँखों से अश्रुप्रवाह होने के समाचार आने लगते हैं किंतु नूपुर शर्मा के मामले में सारे मुस्लिम देश भारत के विरुद्ध एकजुट होकर मुआफ़ी माँगने के लिए अड़ जाते हैं। क्या राष्ट्रध्वज झुकाकर हमने उनके प्रति अपनी चाटुकारिता प्रदर्शित की थी? यदि नहीं तो हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का इन राष्ट्रों का इतना दुस्साहस कैसे हुआ? हम तथ्यों को पूरी दुनिया के सामने स्पष्टता और दृढ़ता के साथ क्यों नहीं रख पाते? हम यह क्यों नहीं बता पाते कि हिन्दुओं को काट डालने और भारत को इस्लामिक देश बनाने जैसी धमकियों का हमारे देश में एक लम्बा सिलसिला है जिसके परिप्रेक्ष्य में इस बेबात की बात को देखा जाना चाहिए! क्या हमारी विदेशनीति इतनी शिथिल है? नूपुर शर्मा और नवीन पर तो निष्कासन की कार्यवाही हो जाती है पर नूपुर का बलात्कार करने और हत्या करने पर एक करोड़ के इनाम की घोषणा करने वाले वकील पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं होती? सनातनी देवी-देवताओं पर राणा अयूब और सवा नकवी जैसे सैकड़ों लोगों की अपमानजनक टिप्पणियों को ईशनिंदा क्यों नहीं माना जाता?

मौलाना महमूद मदनी जैसे तमाम मौलानाओं की धमकी पर कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया जाता? पञ्जाब में खालिस्तान की आज़ादी का संघर्ष अब खुलकर सड़कों पर आ गया है, आम जनता को लगता है कि इस दुस्साहस का कारण वह प्रोत्साहन है जो लाल किले पर खालिस्तानी झण्डा लहराने की घटना को गम्भीरता से न लेने के कारण उत्पन्न हुआ है। आम जनता को लगता है कि किसान आंदोलन में टिकैत की निरंकुश भूमिका पर कोई कानूनी कार्यवाही न करने और किसानबिल वापस लेने से अराजकतत्व प्रोत्साहित हुये हैं। वे कौन सी विवशताएँ हैं जिन्हें हम समझ नहीं पा रहे हैं और विश्व के इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को एक कदम बढ़ने पर दस कदम पीछे पलटने के लिए विवश होना पड़ता है?

ईशनिंदा (जो कि नूपुर शर्मा के ऊपर मिथ्या आरोप है) के विषय पर पूरी दुनिया के मुस्लिम राष्ट्र एक हो कर अपनी मनमानी शर्तें भारत के ऊपर थोप देते हैं, बिना इस बात का परीक्षण किए कि आरोप में कितनी सत्यता है। हम गलत नहीं हैं फिर भी हम इन राष्ट्रों के आगे, …इन ओवेसियों और मौलवियों के आगे क्यों झुकते हैं? मोहन भागवत के सामने ऐसी कौन सी विवशता है जो उन्हें मुसलमानों को अपना भाई मानने किंतु अपने उन्हीं भाइयों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों पर मौन रहने के लिए प्रेरित करती है? “बच्चा-बच्चा राम है गली-गली में सीता है” गाने वाले को नूपुर शर्मा के साथ यौनदुष्कर्म करने की धमकी पर दुःख क्यों नहीं होता, उनका मुँह बंद क्यों हो जाता है? और सबसे बड़ी बात यह कि सदा गहरी नींद में सोई रहने वाली जनता आखिर इस बार अपनी असुरक्षा और आसन्न संहार को लेकर इतनी उद्वेलित क्यों है

4 टिप्‍पणियां:

  1. सोचने और समझने वाली बात है । बहुमत से आई सरकार भी यदि ऐसे दबाव में आ कर काम करेगी तो एक न एक दिन देश इस्लामिक राष्ट्र बन ही जायेगा ।

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    1. यह तो खुला मिशन है उनका, वे अक्सर इस तरह की धमकियाँ भी देते रहते हैं बल्कि वे तो यह भी कहते हैं कि हिन्दुओंं को काट कर फेक देंगे और भारत को इस्लामिस्तान बनाएँगे। वे इस्लाम और शरीया की बात करते हैं किंतु जब हम सनातन और हिन्दुत्ब की बात करते हैं तो सब एक साथ टूट पड़ते हैं जिसमें सेक्युलर हिन्दुओं की भी एक बहुत बड़ी संख्या है।

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    2. स्मरण कीजिए, हाल ही में केरल के किसी मुस्लिम नेता का एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें अंग्रेज़ी में बोलने वाले वक्ता को यह कहते हुये सुना गया कि केरल में इस्लाम की हुकूमत 2031 में होगी, रा.स्व.संघ का ख़ात्मा 2040 तक हो जाएगा, भारत पर मुसलमानों की हुकूमत 2047 तक हो जायेगी और भारत को इस्लामिक मुल्क बनाने की घोषणा 1 जनवरी 2050 की सुबह कर दी जाएगी।

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    3. भारत का यह वर्तमान हमें उस अतीत की ओर ले जाता है जिसके कारण सनातनियों को शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों का शिकार होते रहना पड़ा।
      सनातनियों पर अत्याचार हो रहे हैं और हिन्दुत्व की हुंकार भरने वाली सरकार भी अत्याचारियों को ही संरक्षण देने की प्रतिस्पर्धा में कूद पड़ी है। हमारा राजा एक कदम आगे चलता है, दस कदम पीछे लौटता है। धमकियाँ मिल रही हैं कि हिंदुत्व को उखाड़ फेंका जाएगा, हिन्दुओं को काट डाला जाएगा, जब उनकी सत्ता आएगी तो मंदिरों को तोड़ दिया जाएगा, नुपुर शर्मा के साथ बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी जाएगी और हत्यारे को एक करोड़ का इनाम दिया जाएगा... और इन सब धमकियों को हेट स्पीच नहीं माना जाता बल्कि धमकियों का प्रतिवाद करने वालों को जेल में डाल दिया जा रहा है।
      सनातनियों में पौरुष, संगठन और एकता के अभाव ने उन्हें बंद गलियों में धकेल दिया है। दृढ़ नेतृत्व के अभाव, वैचारिक शून्यता और बारम्बार छल एवं विश्वासघात करने की प्रवृत्ति ने सनातनियों के भविष्य और अस्तित्व पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। सनातनी भयभीत, असुरक्षित और नेतृत्वविहीन हैं। यदि उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और कथावाचकों पर विश्वास करना नहीं छोड़ा तो उनके अस्तित्व की रक्षा ईश्वर भी नहीं कर सकेंगे।
      भारत डरने लगा है, राकेश टिकैत से, खालिस्तानियों से, मुसलमानों से, कतर से... इसलिए अब कभी सत्य का समर्थन नहीं करेगा।
      तमाम धमकियों के बाद भी मुसलमान बड़ी संख्या में घर वापसी कर रहे हैं और हिन्दुओं के स्वयम्भू ठेकेदारों की लड़कियाँ मुसलमान बनकर निकाह कर रही हैं। सनातनियों को विचार करना है कि क्या वे एक जनवरी 2050 तक इस्लाम स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.