बुधवार, 8 जून 2022

वेश्यावृत्ति और उलझती परिभाषाएँ

        सर्वोच्च न्यायालय ने वयस्क स्त्रियों द्वारा की जाने वाली स्वैच्छिक वेश्यावृत्ति को संविधान की धारा 21 के अंतर्गत विधि विरुद्ध मानने से इंकार कर दिया है। तीन न्यायामूर्तियों की पीठ ने वेश्यायों के देह व्यापार को एक व्यवसाय मानते हुये संविधान की धारा 142 के अंतर्गत उन्हें परिचयपत्र प्रदान किए जाने के निर्देश भी दिए हैं। भारत जैसे देश में जहाँ नैतिक और मानवीय मूल्यों को बड़े सम्मान के साथ देखे जाने की दीर्घ परम्परा रही है, इस तरह के आदेश ने एक नए विमर्श की भूमिका उत्पन्न कर दी है।

विधिवेत्ताओं द्वारा माना जा रहा है कि इससे वेश्याओं के शोषण को नियंत्रित करने में सहयोग मिलेगा। किंतु व्यवसाय होने के कारण क्या इस व्यवसाय से होने वाली आय पर वेश्याओं को आयकर भी देना होगा? यह भावनाओं को आहत करने वाला एक प्रश्न हो सकता है। आम भारतीय नहीं चाहेगा कि वेश्याओं से आयकर लिया जाय, किंतु कालाधन कमाने वाले अपराधियों द्वारा इसका दुरुपयोग किए जाने की पूरी आशंका है। यह एक ऐसी आसन्न समस्या है जिसका समाधान कठोर ही हो सकता है।

आदिम यौनस्वच्छंदता से उपजने वाली हिंसाओं पर अंकुश लगाने के लिए मानव सभ्यताएँ समय-समय पर कई तरह के प्रावधान करती रही हैं जिसमें पारस्परिक सहमति, विवाह, बहुपत्नीविवाह, बहुपतिविवाह, विवाहेतर सम्बंध, लिव इन रिलेशनशिप, वेश्यावृत्ति और यौनदासी जैसी व्यवस्थाएँ प्रचलित रही हैं।

जब किसी समाज में कोई अप्रिय व्यवस्था मान्य हो तो वहाँ नैतिक और वैज्ञानिक मूल्य शिथिल हो जाते हैं। रिश्वतखोरी और वैज्ञानिक उपकरणों का दुरुपयोग ऐसी ही व्यापक व्यवस्थाएँ हैं। भारत में ऐसे कई समुदाय हैं जिनमें वेश्यावृत्ति पारम्परिक व्यवसाय है। ऐसे समुदाय औरों की दृष्टि में निंदनीय हो सकते हैं किंतु स्वयं उनकी दृष्टि में वे निंदनीय नहीं हैं। ऐसे लोग अपने परिवार के साथ रहते हैं, जिसमें बच्चे भी होते हैं और वयोवृद्ध भी।

किसी व्यवस्था को समाज या सत्ता से मिलने वाली स्वीकृति में नैतिक मूल्यों का होना आवश्यक नहीं। इसी के ठीक विपरीत नैतिक मूल्यों को समाज या सत्ता से मिलने वाली स्वीकृति आवश्यक नहीं। इन बातों की कई तरह से व्याख्याएँ की जा सकती हैं जिनसे व्याख्याओं का एक जंगल तैयार किया जा सकता है और जिसमें आम आदमी भटक कर रह जाएगा।

जैसे-जैसे हम सभ्य होते गये वैसे-वैसे व्याख्याओं में उलझते गये हैं। नैतिकता-अनैतिकता और पुण्य-पाप जैसे विषय हमारे चिंतन और आचरण को प्रभावित करते हैं, किंतु कई बार ये सब नितांत व्यक्तिगत विषय हो जाते हैं और उपभोक्तावादी भीड़ का इनसे कोई लेना-देना नहीं होता।  

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