धर्मनिरपेक्षता के पाखण्ड के बाद से जिन दो शब्दों को धूर्ततापूर्ण तरीके से भारतीय जनमानस के सामने परोसा जाता रहा है वे हैं “विविधता” और “साझीसंस्कृति”। इन शब्दों का भारतीय सनातन संस्कृति पर आक्रमण के लिए धूर्ततापूर्वक प्रयोग किया जाता रहा और हम सब दुष्टतापूर्वक की जाती रही विकृत व्याख्याओं को सुन-सुन कर आत्ममुग्ध होते रहे।
हमने न
कभी “विविधता में एकता” को समझने का प्रयास किया और न “साझीसंस्कृति” को, किंतु
यह प्रयास यदि अभी भी न किया गया तो भारत अगले कुछ ही दशकों में ईरान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान,
तुर्की और स्पेन आदि देशों की श्रेणी में खड़ा दिखायी देगा।
जब हम विविधता
में एकता की बात करते हैं तो उसमें भारतीय उपमहाद्वीप की जीवनशैलियों और
सांस्कृतिक तत्वों का ही समावेश किया जा सकना सम्भव है। इस विविधता में विदेशी
जीवनशैली और सांस्कृतिक तत्वों का समावेश पूरी तरह अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है।
हम भारत में अलास्का या कनाडा की जीवनशैली का घालमेल नहीं कर सकते, उनके
सांस्कृतिक मूल्यों और लोकपरम्पराओं का घालमेल नहीं कर सकते। किसी भी देश की
जीवनशैली, लोकरीतियों और सांस्कृतिक विकास का धरातल वहाँ की
भौगोलिक स्थितियों और पारिस्थितिकी से प्रभावित होता है। भारत में अलास्का या अरब को
थोप कर विविधता में एकता का राग अलापना नितांत अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है।
प्रकृति की आवश्यकता यदि एकता वाली होती तो विविधता होती ही क्यों!
परस्पर
विपरीत आदर्शों एवं आचरणों वाली जीवनशैली का घालमेल कैसे किया जा सकता है? मनुष्य
और राक्षस की, देवता और दैत्य की या सुर और असुर की
संस्कृतियाँ साझा नहीं हो सकतीं। यदि इन संस्कृतियों का साझा विकास हुआ होता तो
इनमें टकराव और भिन्नताएँ होती ही क्यों!
हर देश
और समाज की अपनी सांस्कृतिक विशेषता होती है, उसका विकास स्वतंत्ररूप से
अपने उपादानों और तरीकों से होता है। कोई भी संस्कृति साझा हो ही नहीं सकती। हाँ!
हम कुछ चीजों को अपनाते हैं, जो हमारी नहीं होतीं, किंतु इस तरह का समावेश ठीक वैसा ही नहीं होता, हम
अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उनमें कुछ न कुछ रूपांतरण करते हैं। पूरी धरती पर ऐसा
ही होता है। सभी देशों के लोग एक ही तरह से रोटी नहीं पकाते, एक ही तरह से नृत्य नहीं करते, एक ही तरह की भाषा का
उपयोग नहीं करते, एक ही तरह की वेश-भूषा धारण नहीं करते,,,। बहुत कुछ है जो “एक सा नहीं” होता, यह “एक सा न
होना” ही उस देश की सांस्कृतिक विशेषता है। हम दूरदेशीय किन्हीं दो सांस्कृतिक
विशेषताओं का घालमेल कर ही नहीं सकते, जो किया जाता है वह बलपूर्वक
होता है और उसे स्थानापन्न किया जाना कहते हैं। एक संस्कृति की हत्या कर दूसरी
संस्कृति को स्थापित किया जाता है, यही होता है। जब तक यह
पूरी तरह नहीं हो जाता तब तक हिंसा और संघर्ष होते रहते हैं। पाकिस्तान और
अफ़गानिस्तान के आंतरिक हिंसक संघर्ष हमारे सामने हैं।
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