"अग्निवीर का अग्निकाण्ड" लेख पर कई लोगों ने टिप्पणियाँ भेजी हैं। टीवी डिबेट्स में आने वाले विद्वानों की शैली में हम विमर्श नहीं कर सकेंगे। किसी सार्थक विमर्श को एक स्वस्थ्य एवं सकारात्मक वातावरण की अपेक्षा होती है जिसके लिए मर्यादा, अध्ययन और तर्क की आवश्यकता होती है। जिन लोगों ने विमर्श में गम्भीरता दिखायी है, उनका स्वागत है। जो प्रश्न प्रायः उठाये जा रहे हैं उनमें से विचारणीय हैं – 1-इस नौकरी को चार साल के लिए ही क्यों रखा गया, चार साल के बाद युवक क्या करेगा, चार साल तो प्रशिक्षण में ही निकल जाएँगे तो ऐसी नौकरी का क्या अर्थ? 2- सेना को प्रयोगशाला या मजाक का विषय क्यों बनाया जा रहा है? 3- चार साल के बाद पुनः बेरोजगार हुये युवक सेना की गोपनीयता को भंग कर सकते हैं या अपने सैन्य प्रशिक्षण का दुरुपयोग आतंकी गतिविधियों के लिए कर सकते हैं जिससे देश की सुरक्षा ख़तरे में आ सकती है।
किसी पद के लिए 25 स्थान रिक्त हैं किंतु
प्रथम चरण में भर्ती 100 लोगों की कर ली जाती है, इस अपेक्षा
के साथ कि इन एक सौ लोगों में श्रेष्ठता के लिए प्रतिस्पर्धा होगी तो सेना के लिए श्रेष्ठतम
25 लोगों का चयन चार साल बाद दूसरे चरण में किया जा सकेगा। अतिरिक्त 75 लोगों को घर
वापस न भेजकर अन्य सेवाओं की तैयारी के लिये सेना में एक प्लेटफ़ॉर्म प्राप्त होगा जो
सवैतनिक होगा। यह उनकी अतिरिक्त योग्यता होगी जो उन्हें विभिन्न क्षेत्रों की अन्य
सेवाओं के चयन में प्राथमिकता दिलाने वाली होगी। इन 75 में से शायद ही कोई ऐसा होगा
जो आगे भी बेरोजगार हो सकेगा। अंतिम विकल्प निजी व्यवसाय का है, जो हर किसी
के लिए खुला है।
हाँ! दुनिया भर की सेनायें कई तरह के प्रयोग
करती रहती हैं किंतु वे किसी रंगरूट को अपने प्रयोग का गिनी पिग नहीं बनातीं। चीन और
पाकिस्तान अचानक आक्रमण करने के लिये जाने जाते हैं। और भारत की सेना को तो 1947 के
बाद से लगभग प्रतिदिन ही युद्ध करना पड़ रहा है। जब शत्रु अपने चारो हो तो आने वाले
समय के लिए पहले से तैयारी क्यों नहीं की जानी चाहिए? यह मजाक
नहीं गम्भीरता है।
संवादहीनता का आरोप सही है, सरकार
युवाओं को यह समझाने में असफल रही कि चार वर्षीय यह सेवा अंतिम नहीं है, वहीं
युवकों ने भी योजना को समझने में गम्भीरता का परिचय न देकर, हिंसा
और अराजकता का सहारा लेना अधिक उचित समझा। ऐसे युवकों को कोई सरकारी नौकरी क्यों
मिलनी चाहिए?
सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किंतु चार साल के बाद सेना से वापस से आये अतिरिक्त जवानों के आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने की उतनी ही आशंकाएं हो सकती हैं जितनी कि सेना में कार्यरत या सेवानिवृत्त सैनिकों की। आशंकाओं को कारण बनाकर किसी बड़ी गतिविधि को रोका नहीं जा सकता। हमें सकारात्मक दिशा में सोचने की आवश्यकता है।
अग्निपथ
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अभी तक
जीवन में शिक्षा के महत्व का निर्धारण नहीं कर सके। इसे वैयक्तिक विकास के स्थान
पर आजीविका का साधन मान लिया गया है। हम आस्तिक हैं, ईश्वर की
सत्ता में विश्वास करते हैं, पूजा-पाठ
करते हैं जिसके
बदले में हमारी ईश्वर से अपेक्षा होती है कि वह हमारी सभी भौतिक ऐषणाओं का हमें
मनोनुकूल परिणाम देगा। हमारी अपेक्षा पूरी नहीं होती तो हम ईश्वर के अस्तित्व पर
ही प्रश्नचिन्ह लगाने लगते हैं। आजीविका के लिए सरकारी नौकरी ही क्यों? निजी
क्षेत्रों की नौकरियाँ भी हैं, निजी
व्यवसाय भी हैं। उनके बार में क्यों नहीं सोचा जाना चाहिये? युवक सुंदर
पिचाई क्यों नहीं बनना चाहते? समाचार
पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि रेलवे में स्वीपर के पद के लिए इंजीनियर्स और
पीएच.डी. वालों ने भी आवेदन भेजे हैं। हमें यह भी पढ़ने को मिलता है कि कोई इंजीयर
लाखों के पैकेज को छोड़कर गन्ने का रस बेचने या डेयरी व्यवसाय के लिए भारत वापस आ
गया है। इन दोनों घटनाओं में से हमारे लिए प्रेरक कौन सी होनी चाहिए?
“उत्तम खेती मद्धम बान, निखिद
चाकरी भीख निदान” को हम गुजरे जमाने की कहावत कहकर एक कोने में फेक सकते हैं किंतु
यह विचार नहीं करना चाहते कि यह कहावत आज इतनी अव्यावहारिक हो गयी तो उसके कारण
क्या हैं! मौर्यकाल में भारत की समृद्धि के क्या कारण थे!
सरकारी नौकरी में मेरी दुर्दशा देख-देख
कर बड़े हुये मेरे बेटे ने प्रारम्भ से ही सरकारी नौकरी का लक्ष्य नहीं बनाया किंतु
शिक्षा से मुँह भी नहीं मोड़ा। हमारे एक युवा साथी सरकारी नौकरी छोड़ने का मन बना
चुके हैं। माना कि हर व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता किंतु हम केवल इतना ही बताना चाहते
हैं कि सरकारी नौकरी ही जीवन नहीं है। हमारे देश की प्रतिभायें निजी क्षेत्रों की नौकरियों
को प्राथमिकता क्यों देती हैं? और क्यों
कुछ लोग पीएच.डी के बाद भी केवल सरकारी नौकरी ही करना चाहते हैं, भले ही वह
स्वीपर की ही क्यों न हो?
हमें माध्यम और लक्ष्य के भेद को
समझना होगा। चार साल की सेवा लक्ष्य नहीं, माध्यम है।
औपचारिक शिक्षा के कुछ न्यून पड़ावों पर भी नौकरी की जा सकती है फिर भी लोग उच्च
पड़ावों की ओर आगे बढ़ते हैं। छात्रवृत्ति के लिए परिश्रम करने वाले सभी छात्रों को
छात्रवृत्ति नहीं मिलती किंतु केवल इसीलिए अन्य छात्र पढ़ायी छोड़ नहीं देते।
छात्रवृत्ति लक्ष्य नहीं प्रोत्साहन का तरीका है जिससे छात्रों में प्रतिस्पर्धा
का भाव बढ़ता है और वे अपेक्षाकृत अच्छे परिणाम लाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। किसी
प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए सभी लोगों को नौकरी नहीं मिल जाती, साक्षात्कार
के लिए बुलाये जाने वाले अभ्यर्थियों की संख्या वास्तविक पदों से कहीं अधिक होती है।
हर अग्निवीर को सेना में स्थायी नहीं किया जायेगा किंतु 25 प्रतिशत तो हैं जो
स्थायी होने की पात्रता रखते हैं। शेष 75 प्रतिशत वे हैं जो निर्धारित पदों से अधिक
हैं और उन्हें अवसर दिया गया है कि वे सेना में चार साल रहते हुये अपने भविष्य के लिए
और अच्छी तरह तैयारी करें। इन लोगों का प्रशिक्षण व्यर्थ नहीं जायेगा। आजीविका के
लिए कुछ नहीं तो अंत में स्वतंत्र व्यवसाय तो किया ही जा सकता है। आख़िर स्वतंत्र व्यवसाय
से लोगों को इतना परहेज क्यों है?
सरकारी नौकरियों की कार्यशैली के बारे
में कुछ न कहा जाय वही अच्छा होगा। हम अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में क्यों
नहीं पढ़ाते? अपनी
चिकित्सा सरकारी चिकित्सालयों में क्यों नहीं करवाते? सरकारी बस
छोड़कर निजी कैब में ऑफ़िस क्यों जाते हैं? सरकारी
कम्पनियों के शेयर एक बार ख़रीद लेने के बाद वर्षों तक कान पकड़कर कसमें क्यों खाते
रहते हैं? हर सरकारी
व्यवस्था को उपेक्षा और नकारात्मक भाव से क्यों देखते हैं? यदि सरकारी
संस्थाएँ इतनी ख़राब और घटिया हैं तो हमें केवल नौकरी ही सरकारी क्यों चाहिये?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.