बुधवार, 29 जून 2022

बंसी कौल और थिएटर की गतिविधियों का अभिलेखांकन

         प्रसिद्ध रंगयायावर बंसी कौल नहीं रहे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने दिसम्बर 2021 का “रंग प्रसंग” विशेषांक प्रकाशित किया है जो बंसी कौल के रंगकर्म पर आधारित है। इस अंक के अतिथि संपादक हैं युवा रंगनिर्देशक व्योमेश शुक्ल। इसी अंक में व्योमेश शुक्ल का भी एक लेख प्रकाशित हुआ है - मुश्किल में भी हँसने की सीख। प्रस्तुत है इस लेख पर मेरी टिप्पणी...

बंसी कौल का जाना एक हँसते हुये संघर्ष का जाना है, कला की यायावरी का जाना है, प्रयोगों की तड़प का जाना है। भारतीय नाट्यमंच को कई और बंसी कौल की दरकार है, मेरा विश्वास है कि बंसी कौल एक बार फिर आएँगे। कला को जीवित रहना ही होगा।

“मुश्किल में भी हँसने की सीख” – यही तो वह तत्व है जो भारतीय दर्शन से पोषण पा कर हमारी संस्कृति को निखारने में खर्च होता है। कला की यही विशेषता है, अपनी ही राख से निकलकर उड़ने वाले फ़ीनिक्स की तरह।

“आधुनिक भारतीय जीवन की साधारणता में थिएटर की खोज” ही थिएटर को लोकतांत्रिक बनाएगी। शुक्ल जी! यह बहुत बड़ी बात कह दी आपने। वास्तव में कला की जड़ें यहीं हैं, लोकजीवन में, दूरदराज के गाँवों में, धान रोपती स्त्रियों के गीतों में, हल जोतते बैलों की निर्विकार एकांगी चाल में, आम-जामुन के पेड़ों पर चढ़ते-कूदते बच्चों के खेल में...। जिस दिन हम भारत को खोज लेंगे, हम थिएटर को फिर से पा लेंगे। हमें नौटंकी को फिर से जीवित करना होगा! गाँव में दर्शक है किंतु नौटंकी नहीं है, नाचा नहीं है, आल्हा नहीं है, ढोला-मारू नहीं है, कँहरवा नाच नहीं है...। आज तो गाँव में होली के दिन गाए जाने वाले फाग के गीत भी नहीं हैं। हमें गाँवों के दर्शकों को वह देना होगा जिसकी आज देश को आवश्यकता है। शुक्ल जी! क्या हम कला को देश से जोड़ने की दिशा में कुछ कर सकते हैं?

बंसी कौल ने जो कहा कि हमारे देश में संस्थाओं की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्व दिया जाने लगा है, वही तो असली समस्या है, गाँव से लेकर दिल्ली तक, साहित्य से लेकर थिएटर और सिनेमा तक। समस्या की पहचान बंसी जी ने कर ली, अब इस समस्या को समाप्त करने की दिशा में कुछ करना होगा। यह साधारण संघर्ष नहीं है, सतत चलने वाला संघर्ष है। इसमें कई बंसी कौल को खपना होगा।

थिएटर की गतिविधियों और संस्थाओं के अभिलेखांकन (डॉक्यूमेंटेशन) में लोगों की रुचि दिखाई नहीं देती, शायद यह उबाऊ और बहुत श्रम का काम है, जबकि हम थिएटर कला के इतिहास को खोते जा रहे हैं। नए लोगों को प्रेरित करना होगा। अभिलेखांकन को स्नातक स्तर पर थीसिस का विषय रखे जाने का सुझाव बहुत अच्छा है... किंतु भुगतने जैसा नहीं, यदि निष्ठा और गम्भीरता के साथ काम न किया गया तो परिणाम को दुष्परिणाम में बदलते देर नहीं लगेगी। यह एक संवेदनशील कार्य है।

“मार्केट इकॉनमी” कला के लिए आत्मघाती है, इसे नयी पौध को अच्छी तरह समझाने की आवश्यकता है।  

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