आज प्रस्तुत है भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मालिनी गौतम
के काव्यसंग्रह “चुप्पी वाले दिन” की ऑन लाइन समीक्षा में हुयी चर्चा पर एक चर्चा।
“गिने-चुने लोग”
इतना बड़ा देश! इतने हिन्दीभाषी प्रांत, फिर भी साहित्यिक
चर्चाओं-परिचर्चाओं में गिने-चुने लोग ही सम्मिलित होते हैं। मैं इस उपेक्षा से पीड़ित
होता हूँ किंतु इस पीड़ा का स्त्रीपीड़ा या दलितपीड़ा से कोई
सम्बंध नहीं है। यह पीड़ा हिन्दी साहित्य जगत की व्यापक पीड़ा है। यह कला की पीड़ा है, यह उस लेखन की पीड़ा है जो
कहीं भी अंकुरित हो जाती है... कितनी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी।
मैं दो घटनाओं की चर्चा करना चाहूँगा। कुछ वर्ष पहले दिल्ली
में व्योमेश शुक्ल निर्देशित ”राम की शक्ति पूजा” का मंचन था, मैंने चिकित्सालय से आकस्मिक
अवकाश लिया, ऑन लाइन टिकट बुक करवायी, और बस्तर के दक्षिणी छोर से
दिल्ली जा पहुँचा। प्रेक्षागृह पूरी तरह भरा हुआ था, बाद में पता चला कि दर्शकों
में अधिकांश लोग थिएटर्स के छात्र और शिक्षक थे।
कुछ वर्ष पहले हमारे नगर में एक अंतरराज्यीय नाट्य
कार्यक्रम हुआ था। सरकारी कार्यक्रम में दर्शकों के बैठने की अच्छी व्यवस्था के
बाद भी 20-22 गिनते-गिनते दर्शकों की गणना पूरी हो गयी। बाद में पता चला कि
वास्तविक दर्शक मात्र 5-6 लोग ही थे, शेष दर्शक अगले नाटक के
कलाकार थे। यदि पूरे नगर के केवल शिक्षक ही आ जाते तो कुर्सियाँ कम पड़ जातीं। मुझे
किसी भी साहित्यिक या बौद्धिक कार्यक्रम में
अपने नगर के शिक्षकों की अनुपस्थिति बहुत पीड़ित करती है। हमारे छोटे से नगर में कई
विद्यालयों के अतिरिक्त एक विश्वविद्यालय, एक मेडिकल कॉलेज, एक इंजीनियरिंग कॉलेज, दो पॉलीटेक्निक कॉलेज, तीन-चार नर्सिंग कॉलेज, कई डिग्री कॉलेज, एक उद्यानिकी महाविद्यालय और एक कृषि महाविद्यालय
है।
अंतरराज्यीय नाट्य कार्यक्रम में मात्र 5-6 दर्शकों की
उपस्थिति ने मुझे झकझोर दिया। हमारे समाज का चिंतन, लोक के प्रति संवेदना, अनुभूतियों की क्षमता, चरित्र और अद्भुत
उदासीनता का पीड़ादायी दृश्य हमारे सामने था। कार्यक्रम के अंत
में मैंने कलाकारों से पूछा -1- दर्शकविहीन प्रेक्षागृह में अभिनय करने से कैसा
लगता है? 2- आपको कैसा लगता है जब आप
देखते हैं कि जिन दर्शकों के लिए आपने इतना परिश्रम किया है उन्हें ही इसमें कोई
रुचि ही नहीं है? 3- आपका संदेश केवल 5-6 लोगों तक ही पहुँच सका, यह नाटक की असफलता है या
समाज की? 4- क्या आपको नहीं लगता कि यह समाज कितनी गहरी नींद में है
और उसे जगाने के आपके सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं?
दुःखी मन से उन्होंने जो उत्तर दिया उसमें और मालिनी जी
के उत्तर में तनिक भी अंतर नहीं है। नृत्य, नाटक, कविता, संगीत... सब कुछ रचा जाता
रहेगा, भले ही उन्हें देखने-सुनने वाला कोई न हो। सूरज रोज
उगता रहेगा, भले ही किसी को उसके प्रकाश की आवश्यकता न हो।
और अब “चुप्पी वाले दिन” पर चर्चा से पहले एक बूस्टर
डोज़ –
चुप्पी वाले दिन / होते हैं बहुत उष्ण / और स्पंदन से
पूर्ण /
शब्दहीन ध्वनि करते ये दिन / बीज बोते हैं / क्रांति के
/ प्रतिसंस्कार के ॥
सड़क पर पड़ी प्लास्टिक की बोतलों ने देखे हैं /
कुछ सजे-धजे दिन / बहुत से चुप्पी वाले दिन /
किंतु स्पंदनशून्य नहीं ॥
कचरा बीनने वाले की निधि है / रिक्त और उपेक्षित बोतल /
जो ध्वनि करती रही / चुप्पी वाले दिनों में भी ॥
निश्चित ही किसी रचनाकार के लिए कविता की संप्रेषणीयता एक
मर्मविज्ञान है। अनिल पाण्डेय पूछते हैं –“आम आदमी की आवाज पर क्या अन्य
लोग भी चिंतित होते हैं!”
इसका उत्तर बोल्शेविक क्रांति और फिर साम्यवादी सरकार
के शासन में लेनिन और स्टालिन द्वारा किए गये नरसंहारों में खोजा जा सकता है। आम
आदमी जब विशेष हो जाता है तब आम आदमी उसके लिए शत्रु हो जाता है। जाड़े की किसी रात
को दिल्ली में यौनदुष्कर्म के बाद चलती गाड़ी से सड़क के किनारे नग्नस्थिति में लड़की
को फेक देने वाले भी आम आदमियों के बीच से ही आते हैं और वे लोग भी आम आदमी ही
होते हैं जो घटना का वीडियो बनाते हैं और फिर अपनी-अपनी राह चल देते हैं। पिछले
वर्ष कर्नाटक में चिकित्सा छात्रा के साथ यौनदुष्कर्म के बाद जीवित जला देने वाले
लोग न तो बहुसंख्यक थे, न ब्राह्मण और न विशिष्ट।
हमारी संवेदनाओं के भोथरेपन की जड़ों पर भी एक कविता लिखी जानी चाहिये।
मोतीहारी वाले मिसिर जी को लगता है कि पीड़ा को किसी
वर्ग, जाति, समुदाय या किसी सीमा में
बाँधा नहीं जा सकता। पीड़ा तो कहीं भी उग सकती है। पीड़ा का आरक्षण उसकी स्वाभाविकता, तीव्रता और व्यापकता को
समाप्त कर देगा। हाँ, यह अवश्य है कि
अपनी-अपनी पीड़ा पर्वत से कम नहीं होती, वह पीड़ा ही क्या जो पर्वत
न हो!
“वैवाहिक जीवन में लड़के कोरी स्लेट बनकर प्रवेश नहीं
करते बल्कि लड़कियाँ करती हैं”। अजय तिवारी जी के इस कथन के सम्बंध में इतना ही
कहना पर्याप्त होगा कि कई वर्ष पहले मध्य प्रदेश के एक विख्यात कन्या महाविद्यालय
में नशा और देह-व्यापार को लेकर सर्वेक्षण किया गया था जिसके परिणाम बहुत चौंकाने
वाले थे।
शोषक पुरुष ही हो यह आवश्यक नहीं, वह कोई भी हो सकता है, जिसके पास शक्ति का अवसर है
वह पीड़क और शोषक हो सकता है। सास-बहू के सम्बंधों में पीड़क और पीड़ित दोनों ही
स्त्रियाँ होती हैं। कलेक्टर भी पुरुष है जो हर सप्ताह पीड़क की भूमिका में रहता है
और जिला स्तर के अधिकारियों को सबके सामने अपमानित करने में गर्व का अनुभव करता
है। हम पीड़ा को सीमित या आरक्षित नहीं कर सकते। नूपुर शर्मा बहुसंख्यक वर्ग से हैं
किंतु पीड़ित हैं, उन्हें धमकी देने वाले अल्पसंख्यक वर्ग से हैं किंतु पीड़क हैं। वर्चस्व की ललक
हम सबके स्वभाव में है, हम स्वयं को संस्कारित कर
समावेशी और उदार बनते हैं। यह काम कोई भी कर सकता है, आरजू काज़मी भी और
मोतीहारी वाले मिसिर जी भी।
पीड़ित का पक्ष लेना उस न्याय की अपेक्षा करना है जो पीड़ित को
मिल नहीं सका, और जिसे इंगित करना हर रचनाकार का लेखनधर्म है। “आत्मकेंद्रित संवेदना की अपेक्षा
व्यापक संवेदना महत्वपूर्ण है” - अजय तिवारी जी की यह
बात बहुत अच्छी लगी।
“पीड़ित व्यक्ति पीड़ा का प्रतिकार नहीं कर पाता” – अजय
तिवारी जी।
बिल्कुल सही, किंतु पीड़ा केवल स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों और निर्धनों के हिस्से
में ही नहीं होती है। पुरुष हो या बहुसंख्यक, वर्तमान में तो वे भी पीड़ित हैं, कौन पीड़क है उनका? बड़ी मछली छोटी को खाती है, फिर एक दिन बहुत सी छोटी
मछलियाँ बड़ी मछली को भी खा जाती हैं। यह अवसर की बात है, हर कोई अपने अवसर को पूरी
तरह दुह लेना चाहता है।
अजय तिवारी जी के अनुसार “स्त्री की पीड़ा दमन की पीड़ा
है। ...स्त्री कविता ‘पीड़ा का वृतांत’ समझी जाती है”।
तिवारी जी! पीड़ा स्त्री की हो या पुरुष की उसका स्रोत दमन
ही है।
विवेक निराला जी मानते हैं कि “समाज में धर्मनिरपेक्षता
को समाप्त करने का प्रयास हो रहा है”। मिसिर जी मानते हैं कि यह तो अच्छी बात है, काश! ऐसा सचमुच में हो
पाता! धर्म के प्रति इतनी नकारात्मकता के साथ कोई भी समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो
सकता। कई साल पूर्व अमेरिका के एक मनोचिकित्सक ने किशोरों और युवकों में एंजायटी
और डिप्रेशन की बढ़ती घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए विद्यालय स्तर से ही बाइबिल
का अध्ययन अनिवार्य किए जाने की आवश्यकता जतायी थी।
विवेक निराला जी इंगित करते हैं - “...विकास किसका हो रहा है! …हाशिए पर आये लोगों की आवाज़
को सामने लाना होगा”।
निस्संदेह, विकास में कुछ लोग आगे हैं, कुछ लोग पीछे हैं। यह खो-खो
का खेल है। वोट देना आपकी विवशता है, एक बार ये पार्टी अगली बार
वो पार्टी.... यही क्रम अदल बदल कर चलता रहा है। ये पार्टी भी विकसित, वो पार्टी भी विकसित, यह भी चलता रहेगा। विकास की
बात करना वह सीढ़ी है जो पार्टी के नालायकों के लिए विकास के मार्ग उपलब्ध करती है।
यहाँ लायक है कौन? सुभाष चंद्र बोस लायक थे, उन्हें हाशिये पर खड़ा कर दिया
गया, उनकी आवाज़ को कोई सामने नहीं ला सका।
मिसिर जी बताते हैं कि अंतिम आदमी को कविता से कोई लेना-देना
नहीं होता। वह कविता नहीं पढ़ता।
“...प्रेम निरपेक्ष नहीं होता, जीवन के अन्य संदर्भों से
जुड़कर होता है।...जीवन के व्यापक यथार्थ के साथ प्रेम संदर्भित होता है। ...प्रेम
की अभिव्यक्ति सम्वेदना की अभिव्यक्ति है” – अनिल राय
अनिल जी! प्रेम सुख और आनंद की अनुभूति है, वेदना तो वहाँ है जहाँ
प्रेम का अभाव है। मोतीहारी वाले मिसिर जी प्रेम के लिए सम्वेदना के स्थान पर
समानुभूति शब्द का प्रयोग करते हैं।
अदिति जी ने जिस कविता का उल्लेख किया उसकी धमक गज़ब की
है –पौधे लगाएँगे/ फोटो खिचाएँगे/ फिर कभी देखने भी नहीं जाएँगे/ और एक दिन पशु सारे
पौधे चर जाएँगे॥
वारिश प्रारम्भ होने ही वाली है। वनोत्सव की भी
तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी गयी हैं। फिर पौधे लगेंगे, फोटो खिंचेगी, कोई उन्हें देखने भी नहीं
जायेगा, फिर एक दिन कोई ट्रीगार्ड ले जायेगा और कोई पशु अपने
उदर धर्म का पालन करेगा। यह सब हर साल होता रहेगा, यानी हम यह धूर्तता, निर्लज्जता और दुष्टता हर
साल करते रहेंगे। हम संवेदनाओं की बात करते हैं, जो कहीं नहीं है, इसीलिए चीन में भारी बाढ़ आ
गयी, इसीलिए योरोप के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं, इसीलिए हमारी रचनाएँ कालजयी
नहीं हो पातीं!
अदिति जी कहती हैं कि “साहित्य वही कालजयी होगा जिसकी चिन्ताएँ
बड़ी होंगी”। बिल्कुल यही बात तो मिसिर जी भी कहते हैं।
चिंता होगी तभी तो समुद्र मंथन भी होगा।