गुरुवार, 30 जून 2022

 क्या युद्धों के बिना काम नहीं चल सकता?

युद्ध सत्ता की आवश्यकता है, सत्ता दबंगों की आवश्यकता है। सत्ता के लिए दबंग आपस में विवाद करते हैं और अपने अनुयायियों को आपस में रक्तपात के लिए विवश कर देते हैं। आम आदमी के बीच से आया सैनिक युद्ध में मारा जाता है और विजयश्री दबंग के नाम लिख दी जाती है।

युद्ध वर्चस्व और सत्ता का माध्यम है। संकुचित और असहिष्णु विचारधाराएँ इसे और भी उग्र बना देती हैं। वर्चस्व प्राप्ति के सभी अनुचित उपायों को न्यायसंगत ठहराने के लिए बंधनों और हठों की कुछ कठोर दीवारें बना दी जाती हैं जिन्हें धर्म कहा जाने लगा जबकि उनमें धर्म जैसा कुछ भी नहीं होता। सत्ता का हथियार बनने वाली जनता के बीच बड़ी धूर्ततापूर्वक यह प्रचार किया जाता है कि सभी धर्म शांति और प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं। किसी ने कभी नहीं पूछा कि तब इन धर्मों में वह क्या होता है जो एक धर्मानुयायी को दूसरे धर्मानुयायियों की क्रूरतापूर्वक हत्या के लिए संकल्पित और उत्तेजित कर देता है

कई महाद्वीपों में जब मनुष्यकृत धर्म नहीं थे और कबीलों में विभक्त समाज की अपनी-अपनी परम्पराएँ थीं तब उन सभी पर एक साथ शासन कर पाना दुष्कर था। उन्हें धर्म की मालाएँ पहनायीं गयीं, और एक मंच पर लाने का प्रयास किया गया। कई समुदायों पर शासन करने का यह तरीका वर्चस्वप्रिय दबंगों में बहुत लोकप्रिय हुआ।

जिन्हें धर्म कहा जाता है वे प्रायः एशिया में गढ़े जाते रहे और योरोप, अमेरिका एवं अफ़्रीकी देशों में फैलाये जाते रहे। जहाँ तपती हुयी रेत थी, जहाँ कुछ उपजाया नहीं जा सकता था, वहाँ धर्म की खेती की जाने लगी। एक, दो, तीन, चार....एक के बाद एक कई धर्मों की फसलें उपजायी जाने लगीं।

जब मनुष्यकृत धर्म नहीं थे तब युद्ध के लिए सेना का गठन भी इतना आसान नहीं था। धर्मों के गढ़े जाने के बाद कोई भी उन्मादी सैनिक बन कर सत्ता के लिए स्वेच्छा से हथियार बन जाता है। मध्यकाल में बहुत से युद्ध इसी तरह लड़े और जीते जाते रहे। लूटमार से प्राप्त धन का एक हिस्सा सैनिकों का वेतन होता था और लूटी गयीं स्त्रियाँ उनके भोग का साधन। धर्म के नाम पर यह सब होता रहा। मध्यकाल को दोहराये जाने की तड़प फिर से दिखायी देने लगी है।  मनुष्यकृत धर्म वास्तव में अफीम है जिसका नशा आदमी को क्रूर और हत्यारा बना देता है। मैं ऐसे किसी भी धर्म को स्वीकार नहीं कर सकता जिसका नामकरण तुमने किया है। धर्म न तो स्वीकार किया जा सकता है और न अस्वीकार।

मैं जब भी नदी के पास गया मैंने उसे सात्विक और धार्मिक पाया। हिमाच्छादित पर्वत शिखर, सुवासित हवा, विविध वृक्ष, बुग्यालों में उगी हरी घास, चहचहाते हुये पक्षी, बछड़े को जन्म देती हुयी गाय... सबको मैंने सात्विक और धार्मिक पाया है। मैंने उन सबसे पूछा तुम सब इतने शांत, आकर्षक और रचनाशील हो, तुम्हारा धर्म क्या है, मुझे भी बताओ। वे सब कुछ नहीं बोले, मुस्करा भर दिए।   

बुधवार, 29 जून 2022

बंसी कौल और थिएटर की गतिविधियों का अभिलेखांकन

         प्रसिद्ध रंगयायावर बंसी कौल नहीं रहे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने दिसम्बर 2021 का “रंग प्रसंग” विशेषांक प्रकाशित किया है जो बंसी कौल के रंगकर्म पर आधारित है। इस अंक के अतिथि संपादक हैं युवा रंगनिर्देशक व्योमेश शुक्ल। इसी अंक में व्योमेश शुक्ल का भी एक लेख प्रकाशित हुआ है - मुश्किल में भी हँसने की सीख। प्रस्तुत है इस लेख पर मेरी टिप्पणी...

बंसी कौल का जाना एक हँसते हुये संघर्ष का जाना है, कला की यायावरी का जाना है, प्रयोगों की तड़प का जाना है। भारतीय नाट्यमंच को कई और बंसी कौल की दरकार है, मेरा विश्वास है कि बंसी कौल एक बार फिर आएँगे। कला को जीवित रहना ही होगा।

“मुश्किल में भी हँसने की सीख” – यही तो वह तत्व है जो भारतीय दर्शन से पोषण पा कर हमारी संस्कृति को निखारने में खर्च होता है। कला की यही विशेषता है, अपनी ही राख से निकलकर उड़ने वाले फ़ीनिक्स की तरह।

“आधुनिक भारतीय जीवन की साधारणता में थिएटर की खोज” ही थिएटर को लोकतांत्रिक बनाएगी। शुक्ल जी! यह बहुत बड़ी बात कह दी आपने। वास्तव में कला की जड़ें यहीं हैं, लोकजीवन में, दूरदराज के गाँवों में, धान रोपती स्त्रियों के गीतों में, हल जोतते बैलों की निर्विकार एकांगी चाल में, आम-जामुन के पेड़ों पर चढ़ते-कूदते बच्चों के खेल में...। जिस दिन हम भारत को खोज लेंगे, हम थिएटर को फिर से पा लेंगे। हमें नौटंकी को फिर से जीवित करना होगा! गाँव में दर्शक है किंतु नौटंकी नहीं है, नाचा नहीं है, आल्हा नहीं है, ढोला-मारू नहीं है, कँहरवा नाच नहीं है...। आज तो गाँव में होली के दिन गाए जाने वाले फाग के गीत भी नहीं हैं। हमें गाँवों के दर्शकों को वह देना होगा जिसकी आज देश को आवश्यकता है। शुक्ल जी! क्या हम कला को देश से जोड़ने की दिशा में कुछ कर सकते हैं?

बंसी कौल ने जो कहा कि हमारे देश में संस्थाओं की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्व दिया जाने लगा है, वही तो असली समस्या है, गाँव से लेकर दिल्ली तक, साहित्य से लेकर थिएटर और सिनेमा तक। समस्या की पहचान बंसी जी ने कर ली, अब इस समस्या को समाप्त करने की दिशा में कुछ करना होगा। यह साधारण संघर्ष नहीं है, सतत चलने वाला संघर्ष है। इसमें कई बंसी कौल को खपना होगा।

थिएटर की गतिविधियों और संस्थाओं के अभिलेखांकन (डॉक्यूमेंटेशन) में लोगों की रुचि दिखाई नहीं देती, शायद यह उबाऊ और बहुत श्रम का काम है, जबकि हम थिएटर कला के इतिहास को खोते जा रहे हैं। नए लोगों को प्रेरित करना होगा। अभिलेखांकन को स्नातक स्तर पर थीसिस का विषय रखे जाने का सुझाव बहुत अच्छा है... किंतु भुगतने जैसा नहीं, यदि निष्ठा और गम्भीरता के साथ काम न किया गया तो परिणाम को दुष्परिणाम में बदलते देर नहीं लगेगी। यह एक संवेदनशील कार्य है।

“मार्केट इकॉनमी” कला के लिए आत्मघाती है, इसे नयी पौध को अच्छी तरह समझाने की आवश्यकता है।  

मंगलवार, 28 जून 2022

मार दिया नूपुर समर्थक को

 भारत में सनातनियों के उन्मूलन का क्रम प्रारम्भ हो चुका है, क्या किसी को अभी भी कोई संदेह है?

उदयपुर में नूपुर समर्थक एक व्यक्ति की उसके आठ साल के बेटे के सामने हत्या कर दी गयी। “सर तन से जुदा” वाले इस “सहिष्णुता” सिद्धांत पर कमाल की चुप्पी छायी हुयी है। चुप्पी की मोटी रजाई ओढ़े मोहनभागवत, आशुतोष, बरखा दत्त, रविश कुमार और राजदीप सरदेसाई जैसे लोग इस हत्या पर मौन हैं क्योंकि मारने वाला मोहनभागवत का भाई है और मरने वाला नूपुर समर्थक एक सनातनी। क्या आप पाकिस्तान में इस तरह की किसी घटना की कल्पना कर सकते हैं जिसमें ईशनिंदा के मिथ्या आरोप में मारने वाला हिन्दू और मरने वाला मुसलमान हो? नहीं न! यह केवल भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में ही होता है जहाँ मरने वाला केवल कोई सनातनी और मारने वाला केवल कोई मुसलमान ही होता है। मोहन भागवत को इन मारने वाले लोगों के आचरण में सहिष्णुता और उनके शरीर में अपने पूर्वजों के डीएनए दिखायी पड़ते हैं। आख़िर यह आदमी ऐसी घटनाओं पर मौन क्यों रहता है?

पिछले कुछ दशकों में छद्महिन्दुत्व ने भारत को पूरी तरह आच्छादित कर लिया है। हम सब छद्महिन्दुत्व के विष से विषाक्त हो चुके हैं। कोई कोट के ऊपर जनेऊ लटका लेता है, कोई तिलक लगा लेता है, कोई मंदिर चला जाता है, कोई सार्वजनिक सभा में दुर्गाशप्तशती के मंत्र पढ़ने लगता है... । इस पाखण्ड ने बहुसंख्यकों को भरमा कर रखा है। हिन्दुओं को न और है न ठौर है, यह विवशता अपनों को भी मालुम है और शत्रुओं को भी।

मरने वाले का अपराध यह था कि वह सनातनी यानी हत्यारे की भाषा में काफिर था और सत्य के पक्ष में खड़ा था। हम ऐसी हुकूमत में रहते हैं जहाँ सत्ता कभी सत्य के साथ नहीं होती।

कल कोई भी ज़िहादी मेरी भी हत्या कर सकता है, मैं नूपुर शर्मा और नवीन का समर्थक हूँ, समर्थक रहूँगा। मैं हर उस व्यक्ति के साथ हूँ जो सत्य के साथ खड़ा है।

पॉलीथिन हो गयी प्रतिबंधित

केवल एक बार वापरने के बाद फेक दी जाने वाली पॉलीथिन एक जुलाई से प्रतिबंधित होने जा रही है। यह निर्णय पिछले वर्ष लिया गया था ताकि व्यापारी इस बीच वैकल्पिक व्यवस्था कर सकें। व्यापारियों ने कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की और और अब बीवरेज़ेस कम्पनियों ने करोड़ों की आर्थिक क्षति का उल्लेख करते हुये समय में कुछ और छूट माँगी है।

चीन में हुयी भारी वारिश ने पिछले चालीस वर्षों के स्तर को तोड़ दिया है। अभी अभी असम में भी वर्षा और बाढ़ से भारी क्षति हुयी है। यह क्षति भी करोड़ों की है पर व्यापारियों को लाभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिये।

प्रथम दृष्ट्या यह निर्णय स्वागतेय है किंतु क्या हम सरकार से पूछ सकते हैं कि यह प्रतिबंध पॉलीथिन के व्यवहार पर ही क्यों, उत्पादन पर क्यों नहीं लगाया जाना चाहिये?  

कविता

लिखी नहीं जाती मुझसे
सायास कोई कविता
वह तो झरती है जल की तरह
किसी पर्वत शिखर से,
उसके झरने का कारण है
जल का शिखर पर होना
कविता के झरने का कारण है
कविता का अनुभूतियों और संवेदनाओं के शिखर पर होना।
लेखनी अपने आप थिरकने लगती है
कविता जब झरती है।
 
पीड़ाशोषणनिर्धनतास्त्री,
अल्पसंख्यक और दलित ही क्यों बनें
कविता के केंद्र!
बाँध लिया था शिव ने भी
अपनी जटाओं में गंगा को
अंततः मुक्त करना ही पड़ा न!
कविता को क्यों बनाएँ बंदिनी
क्यों हो कुंठा ही कविता का विषय!
रहने दो मुक्त
कविता को सभी सीमाओं से।
मर जाएगी कविता
जिस दिन बन जायेगी वह अस्त्र
हमारी क्षुद्रता का।
 
कविता के व्यापक संसार में
हिम हैतरल हैउष्ण वाष्प है
हरी घास हैसूखे वृक्ष हैं
सुवासित कुसुम हैंतीक्ष्ण कंटक हैं
लास्य हैताण्डव है
प्रेम हैघृणा है
सुख हैदुःख है
जन्म है मृत्यु है
बहुत व्यापक है कविता का संसार
और उसके विषय,
समाहित हैं जिसमें
दृष्टव्य और अदृष्टव्य भी।
 
मैं बाँध नहीं पाया
कविता को कभी
कविता मुझे बाँध लेती है।

सोमवार, 27 जून 2022

“चुप्पी वाले दिन” - मालिनी गौतम, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन

         आज प्रस्तुत है भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मालिनी गौतम के काव्यसंग्रह “चुप्पी वाले दिन” की ऑन लाइन समीक्षा में हुयी चर्चा पर एक चर्चा।  

“गिने-चुने लोग”

इतना बड़ा देश! इतने हिन्दीभाषी प्रांत, फिर भी साहित्यिक चर्चाओं-परिचर्चाओं में गिने-चुने लोग ही सम्मिलित होते हैं। मैं इस उपेक्षा से पीड़ित होता हूँ किंतु इस पीड़ा का स्त्रीपीड़ा या दलितपीड़ा से कोई सम्बंध नहीं है। यह पीड़ा हिन्दी साहित्य जगत की व्यापक पीड़ा है। यह कला की पीड़ा है, यह उस लेखन की पीड़ा है जो कहीं भी अंकुरित हो जाती है... कितनी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी।

मैं दो घटनाओं की चर्चा करना चाहूँगा। कुछ वर्ष पहले दिल्ली में व्योमेश शुक्ल निर्देशित राम की शक्ति पूजाका मंचन था, मैंने चिकित्सालय से आकस्मिक अवकाश लिया, ऑन लाइन टिकट बुक करवायी, और बस्तर के दक्षिणी छोर से दिल्ली जा पहुँचा। प्रेक्षागृह पूरी तरह भरा हुआ था, बाद में पता चला कि दर्शकों में अधिकांश लोग थिएटर्स के छात्र और शिक्षक थे। 

कुछ वर्ष पहले हमारे नगर में एक अंतरराज्यीय नाट्य कार्यक्रम हुआ था। सरकारी कार्यक्रम में दर्शकों के बैठने की अच्छी व्यवस्था के बाद भी 20-22 गिनते-गिनते दर्शकों की गणना पूरी हो गयी। बाद में पता चला कि वास्तविक दर्शक मात्र 5-6 लोग ही थे, शेष दर्शक अगले नाटक के कलाकार थे। यदि पूरे नगर के केवल शिक्षक ही आ जाते तो कुर्सियाँ कम पड़ जातीं। मुझे किसी भी साहित्यिक या बौद्धिक कार्यक्रम में अपने नगर के शिक्षकों की अनुपस्थिति बहुत पीड़ित करती है। हमारे छोटे से नगर में कई विद्यालयों के अतिरिक्त एक विश्वविद्यालय, एक मेडिकल कॉलेज, एक इंजीनियरिंग कॉलेज, दो पॉलीटेक्निक कॉलेज, तीन-चार नर्सिंग कॉलेज, कई डिग्री कॉलेज, एक उद्यानिकी महाविद्यालय और एक कृषि महाविद्यालय है।

अंतरराज्यीय नाट्य कार्यक्रम में मात्र 5-6 दर्शकों की उपस्थिति ने मुझे झकझोर दिया। हमारे समाज का चिंतन, लोक के प्रति संवेदना, अनुभूतियों की क्षमता, चरित्र और अद्भुत उदासीनता का पीड़ादायी दृश्य हमारे सामने था। कार्यक्रम के अंत में मैंने कलाकारों से पूछा -1- दर्शकविहीन प्रेक्षागृह में अभिनय करने से कैसा लगता है? 2- आपको कैसा लगता है जब आप देखते हैं कि जिन दर्शकों के लिए आपने इतना परिश्रम किया है उन्हें ही इसमें कोई रुचि ही नहीं है? 3- आपका संदेश केवल 5-6 लोगों तक ही पहुँच सका, यह नाटक की असफलता है या समाज की? 4- क्या आपको नहीं लगता कि यह समाज कितनी गहरी नींद में है और उसे जगाने के आपके सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं?

दुःखी मन से उन्होंने जो उत्तर दिया उसमें और मालिनी जी के उत्तर में तनिक भी अंतर नहीं है। नृत्य, नाटक, कविता, संगीत... सब कुछ रचा जाता रहेगा, भले ही उन्हें देखने-सुनने वाला कोई न हो। सूरज रोज उगता रहेगा, भले ही किसी को उसके प्रकाश की आवश्यकता न हो।

और अब “चुप्पी वाले दिन” पर चर्चा से पहले एक बूस्टर डोज़ –

चुप्पी वाले दिन / होते हैं बहुत उष्ण / और स्पंदन से पूर्ण /

शब्दहीन ध्वनि करते ये दिन / बीज बोते हैं / क्रांति के / प्रतिसंस्कार के ॥

सड़क पर पड़ी प्लास्टिक की बोतलों ने देखे हैं /

कुछ सजे-धजे दिन / बहुत से चुप्पी वाले दिन /

किंतु स्पंदनशून्य नहीं ॥

कचरा बीनने वाले की निधि है / रिक्त और उपेक्षित बोतल /

जो ध्वनि करती रही / चुप्पी वाले दिनों में भी ॥

निश्चित ही किसी रचनाकार के लिए कविता की संप्रेषणीयता एक मर्मविज्ञान है। अनिल पाण्डेय पूछते हैं –आम आदमी की आवाज पर क्या अन्य लोग भी चिंतित होते हैं!”

इसका उत्तर बोल्शेविक क्रांति और फिर साम्यवादी सरकार के शासन में लेनिन और स्टालिन द्वारा किए गये नरसंहारों में खोजा जा सकता है। आम आदमी जब विशेष हो जाता है तब आम आदमी उसके लिए शत्रु हो जाता है। जाड़े की किसी रात को दिल्ली में यौनदुष्कर्म के बाद चलती गाड़ी से सड़क के किनारे नग्नस्थिति में लड़की को फेक देने वाले भी आम आदमियों के बीच से ही आते हैं और वे लोग भी आम आदमी ही होते हैं जो घटना का वीडियो बनाते हैं और फिर अपनी-अपनी राह चल देते हैं। पिछले वर्ष कर्नाटक में चिकित्सा छात्रा के साथ यौनदुष्कर्म के बाद जीवित जला देने वाले लोग न तो बहुसंख्यक थे, न ब्राह्मण और न विशिष्ट। हमारी संवेदनाओं के भोथरेपन की जड़ों पर भी एक कविता लिखी जानी चाहिये।    

मोतीहारी वाले मिसिर जी को लगता है कि पीड़ा को किसी वर्ग, जाति, समुदाय या किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता। पीड़ा तो कहीं भी उग सकती है। पीड़ा का आरक्षण उसकी स्वाभाविकता, तीव्रता और व्यापकता को समाप्त कर देगा। हाँ, यह अवश्य है कि अपनी-अपनी पीड़ा पर्वत से कम नहीं होती, वह पीड़ा ही क्या जो पर्वत न हो!

“वैवाहिक जीवन में लड़के कोरी स्लेट बनकर प्रवेश नहीं करते बल्कि लड़कियाँ करती हैं”। अजय तिवारी जी के इस कथन के सम्बंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि कई वर्ष पहले मध्य प्रदेश के एक विख्यात कन्या महाविद्यालय में नशा और देह-व्यापार को लेकर सर्वेक्षण किया गया था जिसके परिणाम बहुत चौंकाने वाले थे।

शोषक पुरुष ही हो यह आवश्यक नहीं, वह कोई भी हो सकता है, जिसके पास शक्ति का अवसर है वह पीड़क और शोषक हो सकता है। सास-बहू के सम्बंधों में पीड़क और पीड़ित दोनों ही स्त्रियाँ होती हैं। कलेक्टर भी पुरुष है जो हर सप्ताह पीड़क की भूमिका में रहता है और जिला स्तर के अधिकारियों को सबके सामने अपमानित करने में गर्व का अनुभव करता है। हम पीड़ा को सीमित या आरक्षित नहीं कर सकते। नूपुर शर्मा बहुसंख्यक वर्ग से हैं किंतु पीड़ित हैं, उन्हें धमकी देने वाले अल्पसंख्यक वर्ग से हैं किंतु पीड़क हैं। वर्चस्व की ललक हम सबके स्वभाव में है, हम स्वयं को संस्कारित कर समावेशी और उदार बनते हैं। यह काम कोई भी कर सकता है, आरजू काज़मी भी और मोतीहारी वाले मिसिर जी भी।

पीड़ित का पक्ष लेना उस न्याय की अपेक्षा करना है जो पीड़ित को मिल नहीं सका, और जिसे इंगित करना हर रचनाकार का लेखनधर्म है। आत्मकेंद्रित संवेदना की अपेक्षा व्यापक संवेदना महत्वपूर्ण है - अजय तिवारी जी की यह बात बहुत अच्छी लगी।

“पीड़ित व्यक्ति पीड़ा का प्रतिकार नहीं कर पाता” – अजय तिवारी जी।

बिल्कुल सही, किंतु पीड़ा केवल स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों और निर्धनों के हिस्से में ही नहीं होती है। पुरुष हो या बहुसंख्यक, वर्तमान में तो वे भी पीड़ित हैं, कौन पीड़क है उनका? बड़ी मछली छोटी को खाती है, फिर एक दिन बहुत सी छोटी मछलियाँ बड़ी मछली को भी खा जाती हैं। यह अवसर की बात है, हर कोई अपने अवसर को पूरी तरह दुह लेना चाहता है।     

अजय तिवारी जी के अनुसार “स्त्री की पीड़ा दमन की पीड़ा है। ...स्त्री कविता पीड़ा का वृतांत समझी जाती है”।

तिवारी जी! पीड़ा स्त्री की हो या पुरुष की उसका स्रोत दमन ही है।

विवेक निराला जी मानते हैं कि “समाज में धर्मनिरपेक्षता को समाप्त करने का प्रयास हो रहा है”। मिसिर जी मानते हैं कि यह तो अच्छी बात है, काश! ऐसा सचमुच में हो पाता! धर्म के प्रति इतनी नकारात्मकता के साथ कोई भी समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। कई साल पूर्व अमेरिका के एक मनोचिकित्सक ने किशोरों और युवकों में एंजायटी और डिप्रेशन की बढ़ती घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए विद्यालय स्तर से ही बाइबिल का अध्ययन अनिवार्य किए जाने की आवश्यकता जतायी थी।

विवेक निराला जी इंगित करते हैं - “...विकास किसका हो रहा है! हाशिए पर आये लोगों की आवाज़ को सामने लाना होगा

निस्संदेह, विकास में कुछ लोग आगे हैं, कुछ लोग पीछे हैं। यह खो-खो का खेल है। वोट देना आपकी विवशता है, एक बार ये पार्टी अगली बार वो पार्टी.... यही क्रम अदल बदल कर चलता रहा है। ये पार्टी भी विकसित, वो पार्टी भी विकसित, यह भी चलता रहेगा। विकास की बात करना वह सीढ़ी है जो पार्टी के नालायकों के लिए विकास के मार्ग उपलब्ध करती है। यहाँ लायक है कौन? सुभाष चंद्र बोस लायक थे, उन्हें हाशिये पर खड़ा कर दिया गया, उनकी आवाज़ को कोई सामने नहीं ला सका।   

मिसिर जी बताते हैं कि अंतिम आदमी को कविता से कोई लेना-देना नहीं होता। वह कविता नहीं पढ़ता।

“...प्रेम निरपेक्ष नहीं होता, जीवन के अन्य संदर्भों से जुड़कर होता है।...जीवन के व्यापक यथार्थ के साथ प्रेम संदर्भित होता है। ...प्रेम की अभिव्यक्ति सम्वेदना की अभिव्यक्ति है” – अनिल राय

अनिल जी! प्रेम सुख और आनंद की अनुभूति है, वेदना तो वहाँ है जहाँ प्रेम का अभाव है। मोतीहारी वाले मिसिर जी प्रेम के लिए सम्वेदना के स्थान पर समानुभूति शब्द का प्रयोग करते हैं।

अदिति जी ने जिस कविता का उल्लेख किया उसकी धमक गज़ब की है –पौधे लगाएँगे/ फोटो खिचाएँगे/ फिर कभी देखने भी नहीं जाएँगे/ और एक दिन पशु सारे पौधे चर जाएँगे॥

वारिश प्रारम्भ होने ही वाली है। वनोत्सव की भी तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी गयी हैं। फिर पौधे लगेंगे, फोटो खिंचेगी, कोई उन्हें देखने भी नहीं जायेगा, फिर एक दिन कोई ट्रीगार्ड ले जायेगा और कोई पशु अपने उदर धर्म का पालन करेगा। यह सब हर साल होता रहेगा, यानी हम यह धूर्तता, निर्लज्जता और दुष्टता हर साल करते रहेंगे। हम संवेदनाओं की बात करते हैं, जो कहीं नहीं है, इसीलिए चीन में भारी बाढ़ आ गयी, इसीलिए योरोप के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं, इसीलिए हमारी रचनाएँ कालजयी नहीं हो पातीं!

अदिति जी कहती हैं कि “साहित्य वही कालजयी होगा जिसकी चिन्ताएँ बड़ी होंगी”। बिल्कुल यही बात तो मिसिर जी भी कहते हैं। चिंता होगी तभी तो समुद्र मंथन भी होगा।

रविवार, 26 जून 2022

चिकित्सा और इन्टीलेक्चुअल ब्लेस्फ़ेमी

         सनातन परम्परा के महर्षि मानते हैं कि प्राकृतिक सिद्धांतों के साथ तालमेल बनाये रखते हुये मानवकृत तकनीक के सहयोग से चिकित्सा प्रणालियों को उपादेय बनाया जाना चाहिये किंतु दुर्भाग्य से कम से कम भारत में तो ऐसा कर पाने में हम असफल ही रहे हैं। इस असफलता का विश्लेषण ऐसे कटुसत्य को उजागर करता है जो हमारी नैतिकता और वैज्ञानिक सूझ-बूझ पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता है।   

टीवी पर धुआँधार बहस करने वाले बुद्धिजीवी इस बात पर कभी कोई प्रश्न नहीं पूछते कि ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एण्टीबायोटिक्स और तमाम नयी-नयी औषधियों की बाढ़ के बाद भी हम संक्रामक रोगों पर विजय पा सकने में समर्थ क्यों नहीं हो पा रहे हैं? फ़ैटीलिवर, ओबेसिटी, डायबिटीज-2, नेफ़्राइटिस, ओवेरियन सिस्ट, एन्जायटी, डिप्रेशन और पार्किंसोनिज़्म से लेकर स्किन-डिसीज़ेस एवं हेयर ग्रेइन्ग एण्ड फ़ालिंग जैसी समस्याओं में निरंतर वृद्धि के कारणों पर किसी को चिंतन करने की आवश्यकता क्यों नहीं लगती!

उच्च श्रेणी के विशिष्ट चिकित्साकेंद्रों को छोड़ दें तो शेष चिकित्सा व्यवस्था किसी भी निष्ठावान चिकित्सक को विचलित कर सकती है।

खाद्य तेलों को रिफ़ाइन करने की औद्योगिक चालबाजी का उपभोक्ता की बायोलॉज़िकल आवश्यकताओं से कोई सम्बंध नहीं होता। तेल को लम्बे समय तक ऑक्सीडाइज़्ड होने से बचाया जा सके, केवल इसीलिए उसकी प्रकृति को ही बदल देना इस वैज्ञानिक युग में एक अपराध क्यों नहीं माना जाता? अल्कोहलयुक्त औषधियों को काँच की बोतलें के स्थान पर प्लास्टिक की बोतलों में क्यों रखा जाना चाहिए? माँग में भरे जाने वाले विषाक्त सिंदूर को प्रतिबंधित कर हल्दी-चूने के रोचना के उपयोग के बारे में स्त्रियों को क्यों नहीं जागरूक किया जाना चाहिए? एक्सपायरी दवाइयों के फ़ार्मेकोलॉज़िकल सत्य को छिपाते हुये उन्हें नष्ट कर देने के मिथ्या पाखण्ड पर कोई वैज्ञानिक परिचर्चा क्यों नहीं की जानी चाहिए? अमेरिका की FDA for the Department of Defense द्वारा एलोपैथिक औषधियों पर किए गए Shelf Life Extension Program की रिपोर्ट्स पर सार्वजनिक बहस क्यों नहीं की जाती? आयुर्वेदिक औषधियों के लेबल्स पर एक्सपायरी तारीख लिखने का पुष्ट वैज्ञानिक आधार क्या है? क्या एक्सपायरी दवाइयाँ वास्तव में जानलेवा होती हैं या यह भी मात्र एक औद्योगिक चालबाजी है? इन विषयों पर चर्चा इसलिए नहीं की जाती क्योंकि ऐसा करने से निरंकुश आर्थिक लाभों पर अंकुश लग जायेगा, उपभोक्ता जागरूक हो जाएगा और अरबों रुपयों का तमाशा बंद हो जाएगा।

     अमेरिकी रक्षा विभाग के लिए फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा एलोपैथिक औषधियों के Shelf Life Extension Program पर किए गये शोध के परिणाम का सार यह है कि 1- औषधि निर्माता द्वारा एक्सपायरी तिथि लिखकर रोगी को सुनिश्चित किया जाता है कि फ़लाँ तिथि के बाद औषधि के उपयोग से लाभ होने की गारण्टी नहीं है। यह निर्धारित अवधि तक किसी औषधि की गुणवत्ता को सुनिश्चित करती है, न कि उसकी मारकता या विषाक्तता को। 2- यदि औषधियों की पैकिंग और रख-रखाव अच्छा हो तो एक्सपायरी तिथि के कई साल बाद तक औषधियों का सफलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है। 3- कुछ औषधियों की कार्मुकता और प्रभावशीलता एक्सपायरी तिथि के बाद कम हो सकती है जिसे डोज़ बढाकर अपेक्षित लाभ के लिए प्रभावी बनाया जा सकता है। 4- पैकिंग खोल देने के बाद यदि औषधियों का उपयोग न किया जाय तो एक्सपायर हुये बिना भी कोई औषधि नमी आदि के कारण अनुपयोगी एवं हानिकारक हो सकती है। 5- तरल एवं इंजेक्टेबल औषधियाँ यदि अपना रंग बदल दें तो रासायनिक परिवर्तन के कारण वे कभी भी हानिकारक हो सकती हैं।